पुरानी मसल है- पुराना चावल ही पथ्य के काम आता है।बुढ़ापा बचपन से लेकर जवानी तक के जीवनानुभवों का कोश होता है- ऐसा प्रकाश पुंज होता है, जिसके आलोक में अपने वर्तमान को संवारते हुए भविष्य का शृंगार करता हैं ।
इतिहास और साहित्य, दोनों ही इस तथ्य के साक्षी हैं कि बूढ़े-बुजुर्गों के अनुभव एवं परामर्श नव-निर्माण कर पाते है, जबकि इसके विपरीत विचार मार्ग विध्वंस की वीरानगी छोड़ जाती है। इसके प्रमाणस्वरूप हम महाभारत और रामायण की कथाओं को देख सकते हैं।
महाभारत में एक तरफ भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर जैसे तपे-तपाए, अनुभव-सिद्ध ज्ञानी, तत्त्वेताओं की शक्ति और जोश से बरसाती पानी से उफनती नदियाँ समझ चुकी थी कि पांडवों से युद्ध करने में अहित ही अहित है। राम ने वृद्ध पिता की आज्ञा का सम्मान करते हुए वनवास स्वीकार किया और अपने परिवार को कलह और विघटन से बचाया।
वृद्ध चाणक्य के साथ मिल कर युवा चंद्रगुप्त ने स्वेच्छाचारी नंद के कुशासन का अंत कर दिया। बीसवीं सदी ने भी देखा कि कैसे लाठी टेक कर चलने वाले बूढ़े महात्मा गांधी के नेतृत्व में संगठित होकर देश ने पराधीनता के जुए को उतार फेंका।
बुढ़ापे से प्राप्त पाथेय-पोषण का ही परिणाम वृद्धावस्था परंपरा है गौरव है और प्रगति है। जीवन के सफर में बड़े होना उस दिन समझे जाते हैं जब हम अपने आँसू खुद ही पोंछ कर खुद ही खड़े हो जाते हैं। आत्मा तो हमेशा ही जानती है कि सही क्या है, गलत क्या है। चुनौती तो मन को समझाने की होती है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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