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भैतिकता की चकाचौंध में हम कहाँ? भाग-2

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हमारा जो कभी था ही नही अपना,उसे सबसे अच्छा प्रिय बना दिया है। ये पदार्थ सुख और पैसे की माया ने , अपना सब जगह आधिपत्य जमा लिया है ।

वह इस भैतिकता ने आदमी की परिभाषा, प्रगति , विकास , सामर्थ्य और अमीरी आदि – आदि को पहचान बना दिया है । कहते है कि और-और का जोड़ , इन्सान को तोड़ रहा है ।

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वह प्यास बुझ जाने पर भी प्यासा , पेट भर जाने के बाद भी थोड़े और की पिपासा रहती है ।यही तृष्णा इन्सान का सुख-चैन सारा छीन रही है , जितना जीना नहीं है, उससे भी अधिक वह मार रही है ।

हम वर्तमान भैतिकता की चकाचौंध में उस और निरन्तर अग्रसर ही है । हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में, इंटरनेट के रंगीन सपनों में, माया के चक्कर में दिन-रात भाग रहे है ।

हम इस अंधी दौड़ में फंसकर इन मोह- माया के जाल में , सुख- शांति और संस्कृति का जीवन भूल गए हैं । मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता है जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है।

वह जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता है । जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें सही से भान भी नहीं रहता है ।

वह आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।

वह उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर , व्यक्ति की इच्छा अनंत होती है उसके लिए वह सब कुछ करता भी है ,कभी सफलता मिलती है, कभी उसको नकारात्मकता , दोनों को सही से संतुलित करके ही हम जीवन का आनंद ले सकते हैं।

आजकल प्रतिस्पर्धा का समय है ,उसमें उलझकर आजकल काफी जन अवसाद में चले जाते हैं। जरूरत है ठहराव, संतोष, आत्मसंयम व सकारात्मक सोच आदि – आदि की।

अतः जैसे हमने कर्म किए हैं वो तो हमें भुगतने ही होंगे चाहे हंसते हुए या दुखी होते हुए तो क्यों न हम शांतिपूर्वक कर्म करते हुए जिए। हम ज्यादा कामनाओं से बचें क्योंकि जो होना होगा, वो होकर रहेगा।
(क्रमशः आगे)

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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