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रहन – सहन : Rahan – Sahan

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क्या आप अपने आस पास की दुनिया से परिचित हैं ? यदि हां तो कहाँ किस हद तक ? जहाँ तक अपना स्वार्थ सिद्ध हो वहीँ तक न ? दूसरी तरफ क्या आप अपने स्वयं से परिचित हैं ? यदि हां तो कहाँ तक अपने पहनावे से ,रहन सहन से और अपने शरीर से ही तो ?

सही में आप न दुनिया से परिचित हैं और न ही अपने आप से ।आप जी रहे हैं स्वार्थ, दिखावा,क्रोध, मान ,माया,लोभ राग और द्वेष आदि की दुनिया में । यह जीना भी कोई जीना है ।

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यदि दुनिया में जीते तो समक्ष आये व्यक्ति के सुख दुःख में होते साझीदार । बांटते उनको अपना निःस्वार्थ प्यार ।यदि अपने आपमें जीते तो स्वयं के भीतर उतर कर उपरत हो जाते सब व्यवहार । हो जाते आत्म – दर्शन में रत और पा लेते अपना ही साक्षात्कार ।

अतः ये जीना नहीं है जीना ।आधा जीना आधा मरना , न जीना हुआ न मरना हुआ । हम बनायें अपना कुछ लक्ष्य दुनियावी व्यवहारों को निभाते हुए निः स्पृह भाव से । जिससे एक दिन पहुँच जाएँगे आत्मा के परम लक्ष्य तक शुद्ध भाव से ।

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जीवन मर्यादित है और उसका जब अंत होगा तब इस लोक की कोई भी वस्तु हमारे साथ नही जाएगी । इस बात का मानव जाति को ज्ञान होना चाहिए उसका रहन-सहन, घर परिवार के अलावा उसका अध्यात्म आदि। जिससे मन में वैराग्य जागे।

भौतिक धन तो कोई छीन भी सकता है । आध्यात्मिक सम्पत्ति को कोई भी छीन नहीं सकता हैं । जन्म – जन्मान्तर से रोज़मर्रा कर्मों का व्यापार करते आ रहे हैं पर फिर भी संतुष्टि नहीं हैं । हमारे सांसारिक कर्मों के विशाल पहाड़ों ने हमारी स्फटिक आत्मा को ढ़क रखा है । हमें इस आवरण को भावशुद्धि और मानसिक शुद्धि के द्वारा अलौकित करना है। जब जागो तभी सवेरा !

अब जागने की घड़ी आ गयी। आत्मचिन्तन के दरिये में गोते लगाकर आत्ममंथन कर नवनीत निकालना है ।और भवभ्रमण को अब सीमित करके द एंड करना है यानि ! परम लक्ष्य की प्राप्ति करनी है। वो भी एक युग था जब सभ्यता और शिक्षा कम थी और आम आदमी की जीविका चलाने के लिये वस्तुओं का आदान प्रदान ही माध्यम था।

उस युग में प्रगति कम थी पर पारस्परिक स्नेह और मन की शांति बहुत थी।मन के अंदर छल कपट,व्यभिचार और संग्रह की सीमा नहीं के बराबर थी।समय के साथ हर क्षेत्र में प्रगति की शुरुआत हुयी।आपसी लेन-देन में मुद्रा का प्रयोग होने लगा।

वर्तमान समय को देखें तो इंसान ने हर क्षेत्र में प्रगति तो खूब कर रहा है।संसार में कुछ धनाढ़्य व्यक्ति ऐसे भी हैं जिनकी दौलत उसकी आने वाली सौ पीढ़ी भी खर्च नहीं कर सकती।उन लोगों ने धन तो खूब अर्जित कर लिया और आगे भी कर रहे हैं।

पर उनकी मानसिक शांति बहुत दूर जा रही है।उनके जीवन के हर दिन का हर मिनट किसी ना किसी काम के लिये बँटा हुआ है।वो चाह कर भी अपना थोड़ा समय अपने मन की शांति के लिये नहीं निकाल सकता।क्या धन दौलत ही जीवन है।उतर मिलेगा-नहीं।

जब इंसान प्रगति के पथ पर आगे बढ़ता है तो वो फिर पीछे लोट नहीं सकता।वो दो कदम और आगे बढ़ने की सोचेगा तब कुछ और प्रगति कर पायेगा। यह भी बात सत्य है कि हर अविष्कार के पीछे कुछ ना कुछ नुक़सान ज़रूर होता है।

जैसे परमाणु बंब का अविष्कार,मोटर वाहन का प्रयोग,घर में हर काम मशीन से करना और जिस फेक्टरी में हज़ारों वर्कर क़ार्य करते थे उसमें कम्प्यूटर युग ने कुछ लोगों तक सीमित कर दिया।इसलिये मेरा मत तो यह है कि इंसान को अपनी मन की शांति रखनी है तो वो उस इंसान के ऊपर निर्भर करता है कि मुझे अपनी जिन्दगी में रहन – सहन को कैसे काल – भाव की अनुकूलता के अनुसार सही व सुन्दर बनाना हैं ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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