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भैतिकता की चकाचौंध में हम कहाँ? भाग-1

the dazzle of materialism
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तृष्णा की आग लगी है तो तपन रहेगी ही रहेगी । वह ढ़लान की दिशा मे जल की धार बहेगी ही बहेगी । अतः जरूरी है परिमाण के कारण का सही से निराकरण अगर नींव कमजोर है तो दिवार ढ़हेगी ही।

यहाँ जो लखपति है उसे आगे करोडपति बनना है और जो करोडपति है उसको आगे अरबपति बनना है आदि – आदि | आदमी जिंदगी भर दौड़-दौड़ कर धन को जोड़ता है ।

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आदमी कमाने के चक्कर मे धर्म से मुख मोड़ता है । अब वो कैसे हाँ कहे पैसे के पीछे भागते भागते हुए सब कुछ पाने की ख्वाईश में वो जिसके लिये सब कुछ कर रहा है वह ही रह गया है ।

वह जिंदगी भर पापों का collection करता है , उसका reaction बाद में होता है । इच्छाओं का मकडजाल के घेरे में जब घुसते हैं तो उससे निकलने के लिए फिर कहीं मार्ग नहीं है।

इच्छायें फिर ऐसा ताना बाना बुनती है कि उसका फिर समुद्र के दो किनारों की तरह कोई ओर छोर नहीं है । इन्सान की इच्छापूर्ति कभी पूरी नहीं होती है । एक पूरी हो भी जाये तो दुगुनी इच्छा मुँह बायें सामने खड़ी रहती है।

हम तभी तो कहते हैं कि इच्छाओं का आसमान अन्तहीन है। मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी धन के प्रति उसका आकर्षण है । इंसान चाहे छोटा हो या बड़ा,धन के मोह में ऐसा फँसता है कि उससे दूर होना जैसे एक शराबी को शराब से दूर करना है ।

हम देखते है कि जिसके पास कल तक कुछ नहीं था,उसके पास आज बहुत कुछ है।यह धन जैसे-जैसे बढ़ता है वैसे-वैसे धन की तृष्णा के चक्रव्यूह में वह ऐसे फँसता है जैसे अभिमन्यु।

उस चक्रव्यूह में घुसना तो आसान है पर बाहर आना बहुत मुश्किल है । हर व्यक्ति जानता है कि अंत समय में एक पाई भी यंहा से लेकर नहीं जायेंगे पर धन की तृष्णा का आवरण आँखों के आगे ऐसा आता है कि वो इंसान धन का सही उपयोग करना तो भूलता ही है और साथ में धार्मिक क्रियाओं से भी दूर हो जाता है।

तभी तो कहते है कि इंसान नीचे बैठे दौलत गिनता है और कर्मदेव उसके दिन गिनता है । हमको इस भैतिकता की चकाचौंध ने अंधा बना दिया है जो वजूद संस्कार का था उसे बेगाना बना दिया है ।
(क्रमशः आगे)

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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