अगर हम अन्दर से आनन्द में है तो बाहरी दुनिया की बड़ी से बड़ी चुनौति का भी आसानी से सामना करने में समर्थ होंगे परन्तु यदि भीतर में दुःख और अवसाद से भरे पड़े हैं तो छोटी मोटी विपरीत अवस्था से भी हम बिखरते नज़र आएँगे।
समझना यह है कि वह बेशक़ीमती भीतर का आनन्द हम सबके अन्दर हैं । बस , हम उससे अनभिज्ञ हैं, इसीलिए सिकन्दर नहीं हैं । ध्यान में लीन होकर गहरा भीतर उतरते जायेंगे तो हम आनन्द महसूस करेंगे ।
महावीर ने प्रथम पात्र गौतम को चुना, उन्होंने बताया – जीवन में महानतम उपलब्धि आत्म साक्षात्कार है और वह ध्यान से होती है, गौतम स्वामी प्राय : चार प्रहर ध्यान करते थे और चार प्रहर का स्वाध्याय, यह क्रम आगे बढ़ा, साधक ध्यान के समय तपस्या भी करते है।
जब ध्यान में बाधा उपस्थित होने लगती है तब ध्यान को छोड़कर तपस्या में लीन हों जाते है, जैन साधना में ध्यान का वही स्थान है,जो शरीर. में गर्दन का है। ध्यान से वीतरागी की वाणी को सुनना अति दुष्कर होता है व जन्म-मरण के बीच का समय जीवन होता है ।
रागी हो या वीतरागी दोनो के लिये जीवन पर जीवन के प्रति नजरिया भिन्न -भिन्न होता हैं ।आसक्ति से भरा रागी, अनासक्ति से भरा वीतरागी का जीवन होता हैं । जिसकी अन्तिम परिणति कैसे दोनों की समान होगी ।
सब भावों का ही तो परिणाम हैं ।वीतरागी का ज्ञाता-द्रष्टा भाव होता है जिसकी अन्तिम परिणति सिद्ध गति होता है जिसमे अनन्त सुखों मे लीन हो जाते है , वही दुसरी और रागी मे राग-द्वेष का भाव होता है जिसकी अन्तिम परिणति संसार रुपी दुख सागर मे डूब जाना है ।
अनासक्त भाव व समता में रहकर अन्तिम परिणति का मंगलमय होना सम्भव हैं ।अन्दर तो आनन्द का ख़ज़ाना भरा पड़ा है इसलिये करके देखिए और उस आनन्द का आनन्द लीजिए।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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