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जरूरत : Zaroorat

जरूरत
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जरूरत में लोग जब भी जी चाहे नयी दुनिया बसा लेते हैं । एक चेहरे पे कई चेहरे लोग लगा लेते हैं । इंसान की फ़ितरत गिरगिट की तरह रंग बदलना हैं ।

गरज हैं ज़रूरत हैं स्वार्थ हैं आदि तभी तक ही किसी को याद करना है । मैं बचपन में सुनता था कि गरज हो तो गधे को भी बाप बनना पड़ता हैं और जब स्वार्थ सधा तो तु कौन में कौन ??? देखते ही देखते, सितारे बदल जाते हैं और हाथ में आकर किनारे फिसल जाते हैं ।

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बहुत मतलबी ये जमाना हो गया है । देखते ही देखते अब नारे बदल जाते हैं । ना रूकी यह वक़्त की गर्दिश और ना ज़माना बदला है ।

पेड़ सुखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला हैं पर सोचे हम क्योंकि सच तो यह हैं की हम तुम से, तुम हम से, हम सब एक – दूजे से हैं ।यही जीवन का सच है । अपनी जरूरत पर तो सारा संसार चलता है ।

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जरूरत पर चलने वाला दुनियां से आगे कब निकलता है। हमारे कषायों की तीव्रतम बिंदु न हो क्योंकि भरण-पोषण जिंदगी में होना सम्भव है । हम अपेक्षाभेद से जरूरतों और असीम इच्छाओं का सन्तुलन बनाकर जीवन को समुज्ज्वल बनाएं ।

छोटी सी ये जिंदगी हमें तीव्रतम कषायों की चपेट में आकर बर्बाद नहीं करनी है क्योंकि हमारे वे गहनतम बांधे कर्म हमारे साथ जाएंगे,उसी आसक्ति के अनुरूप हमारी अप्रशस्त गति होगी और कुछ साथ अंतिम समय में नहीं ले जाएंगे ।

हमारी सम्यकरत्न रूपी पूंजी हमारे साथ सिर्फ जाएगी ये हम सब जानते हुये भी अनजान बनकर मोह में अंधे न बनें।

हम सब ममत्व ,आसक्ति,गहनतम मूर्छा आदि से बाहर निकलें । हम निष्काम बनकर साधना करेंगे तभी तो अपने दुर्लभतम चरम लक्ष्य मोक्ष को वरेंगे । हम सब के और मेरे प्रति भी यहीं मंगलभाव।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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