कैफे में पोछा लगाने से उसका मालिक बनने का बाबूराव का सफर आइए जानते हैं इस साधारण इंसान की असाधारण कहानी

cafe niloufer ki kahani

आज की हमारी कहानी है हैदराबाद के मशहूर कैफे निलोफर के मालिक अणुमुला बाबू राव की। इनका जन्म आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले के एक छोटे से किसान परिवार में हुआ था।

शुरुआत का इनका जीवन काफी संघर्ष भरा रहा है। वह एक ऐसे परिवार से संबंध रखते थे जहां दो वक्त का खाना जुटाना मुश्किल होता था।

ऐसे में अच्छी पढ़ाई लिखाई की बात करना ही बेकार है। लेकिन बाबू राव ने अपने जीवन में आगे बढ़कर एक नया मुकाम हासिल किया। बाबूराव की कहानी फिल्मी कहानी से कम नहीं है।

बाबूराव पांचवी तक की पढ़ाई अपने चाचा के साथ महाराष्ट्र के चंद्रपुर में रहकर की थी। इसके बाद अपने ही समुदाय द्वारा चलाए गए एक हॉस्टल में रहने लगे।

जहां की फीस और रहने खाने की फीस ₹100 थी, वहां पर पांच गरीब बच्चों को मुफ्त में रखा जाता था, बाबूराव भी उनमें से एक थे।

100 के लिए पिता ने बेच दी थी गाय

दिवाली की छुट्टियों के दौरान वह कपड़ों के शोरूम पर काम करते थे। जिससे पढ़ाई और घर का घरेलू खर्चा वह पूरा कर सकें। जब वह 16 साल के थे तब दसवीं की कक्षा में पढ़ाई कर रहे थे।

उन्हें किताबें लेने के लिए ₹100 की जरूरत थी। वह अपने गांव गए और अपने पिता से कहा कि वह पढ़ना चाहते हैं।

पैसे न होने की वजह से उनकी पढ़ाई न रुके इसलिए उनके पिता ने कहा कि अभी तो पैसे नहीं है लेकिन शाम तक मुझे पैसे मिल जाएंगे। उनके पिता ने गाय बेच दी थी।

अगले दिन सुबह जब उन्होंने अपनी मां को दूसरे के घर से छाछ मांग कर लाते देखा तो उन्होंने मां से पूछा। तो उनकी मां ने बताया कि तुम्हारे पिता ने दूध देने वाली गाय को ₹120 में बेच दिया।

यह सुनकर वह काफी निराश हो गए और उन्हें इस बात का भी अहसास था कि गाय उनके परिवार के लिए कितना मायने रखती थी।

Babu Rao Cafe Niloufer

इसलिए वह दसवीं की परीक्षा पूरे मन से देते हैं और मन ही मन यह फैसला कर लेते हैं कि वह अपने घर के हालात सुधर कर रहेंगे।

1975 में बाबूराव हैदराबाद चले गए कई दिन तक वहां नामपल्ली स्टेशन पर रहे। कुछ दिनों तक कपड़ों के स्टोर में काम किया। रात को दुकान बंद हो जाने के बाद दुकान के बरामदे में ही वह सो जाया करते थे और सुबह होने से पहले वह उठ जाते थे।

यह सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा। जब उन्होंने अपनी परेशानी कुछ लोगों को बताई तो उन्होंने कहा कि तुम होटल में नौकरी क्यों नहीं कर लेते हैं।

यहां पर तुम्हें खाना रहना और कपड़ा के साथ पैसा भी मिलेगा। बाबूराव 8 महीने तक एक छोटे से होटल पर काम किए।

एक दिन जब वह काम कर रहे थे तो एक नियमित ग्राहक होटल पर आया और कहा बाबूराव मैं होटल को खरीदने की सोच रहा हूं क्या तुम मेरे लिए काम करोगे?

उस दिन के बाद बाबूराव की जिंदगी बदल गई आज उस होटल को कैफे नीलोफर  ( Cafe Niloufer ) के नाम से जाना जाता है।

पोछा लगाने से होटल मालिक का सफर

बाबूराम बताते हैं कि 1976 में मैंने कैफे निलोफर में पोछा मारने का काम करना शुरू किया था। यहीं से सफलता की सीढ़ियां चढ़ने लगा।

जल्दी मुझे वेटर का पद मिल गया उसके बाद मुझे किचन में शिफ्ट कर दिया गया। सिर्फ 2 साल के अंदर कैफे के मालिक ने बाबूराव के साथ एग्रीमेंट किया कि बाबूराव इस कैफे को चला सकते हैं और जो भी कमाई होगी वह उसे रख सकते हैं, लेकिन हर महीने एक फिक्स अमाउंट उन्हें देना होगा।

जैसे तैसे समय बीतने लगा कैफे निलोफर पर आने लगे। कभी कभी 1 दिन में 400 कप चाय बिक जाती थी। देखते ही देखते हर दिन 20000 कप तक जाने लगी।

Cafe Niloufer

बाबूराव की मेहनत का नतीजा यह था कि कैफे निलोफर दिन-ब-दिन तरक्की करने लगा। ओसमानिया बिस्किट के चलते लोग यहां पर खींचे आये।

जल्द ही बाबूराव इस होटल से हर महीने 40 हजार से भी ज्यादा का मुनाफा कमाने लगे थे। 1993 में उन्होंने कुछ पैसे बचा कर कैफे निलोफर को खरीद लिया। इस तरह से गरीबी से सफलता की कहानी आने में कैफे निलोफर का बहुत बड़ा योगदान रहा।

लोगों को मुफ्त में खाना खिलाते हैं

आज बाबूराव के पास अच्छी कार, आईफोन और तमाम लग्जरी सुविधाएं हैं। लेकिन अब वह अपने पिता की एक बात को आज भी याद रखते हैं।

वह बताते हैं पिता ने एक बार कहा था कि तुमको पढ़ना है और एक बड़ा आदमी बनना है और बड़ा आदमी बन कर गरीब की मदद करना न भूलना।

बाबूराव पिछले 22 साल से सरकारी एमएनजे कैंसर अस्पताल और निलोफर अस्पताल के बाहर करीब 400 लोगों को रोजाना खाना खिलाते हैं।

आज उनके इस कैफे में 12वीं पास गरीब बच्चों को काम दिया जाता है। बाबूराव आज गरीबों की मदद भी कर रहे हैं और अपना बिजनेस भी चला रहे हैं। वह कहते हैं यह देखकर खुशी महसूस होती है कि लोग आगे बढ़ कर उनके काम में सहयोग कर रहे हैं।

बाबूराव की कहानी वाकई प्रेरणादायक है इससे सीख ली जा सकती है।

 

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