कहते है कि परोपकार के लिये धन नहीं मन चाहिये ऐसा मन जो पर पीड़ा को समझ उसका काम कर सके । एक घटना प्रसंग मेरे से किसी ने कहा कि प्रदीप मेरे को भाषण और सामूहिक गीत सबके साथ बोलने का लिख कर दे जिससे कार्यक्रम में हम उसको बोल सके लेकिन तुम्हारा नाम नहीं बोले तो मैंने बीच में कहा नहीं मेरा नाम नहीं बोलना है और नहीं देना है कही भी ।
मेरे तो अपना आध्यात्मिक काम सही से सम्पन्न करे यही अभिलाषा है । सच में परोपकार करना इतना अच्छा कार्य है जिसकी शब्दों में व्याख्या नहीं हो सकती है ।
समंदर की उस विशालता-सम, निज हृदय को हम विशाल बनाएं।दया,सेवा,परोपकार को अपना मानवता का हम संदेश फैलाएं जिससे मानो एक तरह से हम समंदर बन जाएं।जीवन में जन्म और मृत्यु तो नदी के दो किनारे है जो आपस मेंकभी नहीं मिलते हैं ।
जिंदगी इन दोनों के बीच में बहता हुआ पानी है। पानी स्वच्छ हो तो उसमें से सब साफ दर्पण की तरह झलकता है। हमारे गुण भी हमारे व्यवहार में ऐसे ही झलकने चाहिए।
जब किताब के पन्ने को पलट जाए तो वो हर तरह से सदाचार से भरपूर हो ,जो पाठक के मन को सम्मोहित करलें तब हमारे जीवन की नोटबुक सार्थक है, सकारात्मक सोच से भरपूर , सहज , सरल कथनी करनी की समानता व संतोष,प रोपकार आदि विवेक की छलनी से छनी हुई हो हमारी जीवन की किताब।।
इस तरह मैं सोच रहा था कि अशिक्षित , शिक्षित , जवान , वृद्ध आदि दुनिया में यदि चौथाई लोग परोपकार को सही से अपना कर करें तो इस धरा को स्वर्ग बना देंगे । सच में परोपकार के लिए जरूरी धन नहीं बल्कि भलाई करने का मन चाहिए ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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