आज मैं अपनी उम्र में पहुंच कर अतीत के झरोखे में झाँकता हूँ तो देखता हूँ कि जिंदगी कितनी जटिल हो गई है। कहाँ वह मेरा बचपन निश्चिंत दाँव-पेंच रहित सीधा-साधा मन।
सादे से वसन में खेल कूद कर स्वतः ही तंदुरुस्त बदन बना रहता और कहाँ आज का complicated जीवन। एक उदाहरण से ही यह अलबत्ता पता चल जाएगा कि बचपन में कपड़े स्कूल के , घर के या किसी खास अवसर के तीन तरह के होते थे और आज!
आज की तो अलग ही बात है। आजकल की Variety Casual, Formal, Normal, Sleep Wear, Sports Wear, Party Wear, Swimming Costume , Jogging Dress, Musical Dress फलाना ढिमका और भी तरह के नाम ही याद नहीं जिनका है और एक पोशाक एक अवसर पल पहन ली तो वह तो Out of Fashion हो गई।
Matching की भी अलग बीमारी हो गई। अब प्रश्न यह उठता हैं कि जिंदगी को जटिल किसने बनाई ? दुराव-छिपाव , चिंता-फ़िक्र , द्वेष-ईर्ष्या , उदासी, निराशा आदि आज के इंसानी जीवन की क्या यही परिभाषा है? सीधी-सादी सी ज़िन्दगी को हमने कितना जटिल बना दिया हैं ।
बेवजह ही हिंसात्मक बातों को जीवन में प्रवेश दिया हैं । हर परिस्थिति में खुश रहने का सूत्र ही भुल गये । समभाव जैसे-शान्त जीवन के मूल-मंत्र को जीवन से मिटा दिया है ।
इस तरह हम मानव ज़िन्दगी को अकारण ही बस बोझिल बना कर जी रहे है । खुशियों के अथाह सागर में तिर सकते है पर व्यर्थ की भागा-दौड़ी के कारण तनाव के दलदल में डूब रहे है ।
सरल-सीधे से जीवन को हम घुमावदार बना रहे है । खुशियों के पलों को विकलता के मार्ग पर ला रहे है ।जिंदगी को आसान बनाने के लिए हम चल रहे है पर यह इतनी जटिल हो गई है कि इसके माने हमको समझ में ही नहीं आते हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
यह भी पढ़ें :-