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हम खोते जा रहें हैं मोबाइल के मेले में

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समय के अनुसार उपयोगिता के अनुरूप हर वस्तु का उपयोग अवश्यंभावी हो जाता है लेकिन अति हर चीज की बुरी होती है ।

यह हमने सुना होगा कि कुछ लोग ईश्वर की खोज में सांसारिक मोह-माया से दूर हिमालय पर जाकर तपस्या करने चले जाते हैं।

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कुछ सालों की तपस्या के बाद उनमें से कुछेक सिद्धि प्राप्त करने का दावा करते हैं व अपूर्व ज्ञान हासिल करने का दम्भ भरते हैं और फिर वे स्वयं ही सिद्ध पुरुष की उपाधि से विभूषित हो जाते हैं।

लेकिन जब से यह मोबाइल आया है न! तब से ईश्वर की खोज तो छोड़िए इन्सान स्वयं को भी नहीं जान पा रहा है। खुद से ही अनभिज्ञ सा होता जा रहा है और कारणों के साथ-साथ मुख्य कारण सभी का विशेष रूप से मोबाइल फोन पर लगे रहना लगता है ।

मोबाइल का इस तरह उपयोग सम्बन्धों पर इतना घातक हो रहा है कि घंटों एक सोफे पर या कही साथ में बैठ कर भी एक- दूसरे से बात करने की हमारी मानसिकता नहीं होती है क्योंकि मोबाइल में व्यस्तता जो रहती है।

वैसे मोबाईल निःसंदेह बहुत उपयोगी उपकरण है पर इसे उपयोगिता तक ही सीमित रखना जरुरी है। इसको एक नशे या लत के रूप में उपयोग करना तो मोबाईल का दोष नहीं है।

इसके इस तरह दुरुपयोग से तो पारिवारिक सामंजस्यता समाप्त हो रही है। यह चिन्तन ही नहीं बहुत गहरी चिंता का विषय है।

इस प्रवृत्ति पर अगर ब्रेक लगाने की ओर ठोस चिन्तन नहीं किया जाएगा तो वह दिन दूर नहीं जब आपसी वार्तालाप पर ही एकदम विराम लग जाएगा।

लोग जैसे खोते जाते हैं कुंभ के मेले में वैसे ही अब इस मोबाइल के मेले में हम खोने लगे हैं और साथ में इसके अंतहीन झमेले में हम रम गये है जिससे अपनों से बिछुड़ने लगे हैं और अजनबियों से मिलने लगे हैं।

इसलिये आज की तारीख में मोबाइल से दूर रहने से बड़ा Meditation कुछ नहीं है और नहीं तो कम से कम इसको सीमित तो हम उपयोग करे जिससे खुद और खुदा ईश्वर, God और वाहे गुरु आदि सबको हम पा लेंगे ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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