सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र रूपी त्रिवेणी ही स्वर्ग और मिथ्यादर्शन,मिथ्या ज्ञान और कथनी और करनी की एकरूपता आदि न होना ही नरक है।
हर जीव को अपने कृत कर्मों का फल भोगना ही पड़ता हैं इससे कोई भी अछूता नहीं रहे है ।हम शायद नहीं जानते कि किए हुए पापों को मिटाना इतना सरल नहीं है ।
आज नहीं तो कल किए हुए पापों का तो फल तो भोगना ही पड़ेगा । हम आगम वाणी में पढ़कर यह समझ सकते है कि भगवान महावीर ने कितने – कितने कष्टों को सम्भाव से सहन किया था।
अतः पाप-कर्म का तो फल भोगना ही पड़ेगा । इससे कोई भी अछूता नहीं रहा है ।पाप की कमाई करने वाले क्षणिक सुख पा सकते हैं पर वे आराम से नहीं रह पाते क्योंकि उनकी अंतरात्मा उनको कचोटती रहती हैं, चाहे वे ऊपर से कितने भी खुशी का दिखावा करलें।
आत्म सुख जिसे शांति कहते हैं वह पाप करने वालों को नहीं मिलती है ।जो पाप करता है उसे उसका परिणाम भुगतना ही पड़ता है यदि इस जन्म में नहीं तो मृत्यु पश्चात किसी भावी जीवन में उसको अवश्य भुगतना पड़ेगा।
मिथ्यादर्शन शल्य पाप दृष्टि यथार्थपरक होनी चाहिए | जो जैसा है, उसे वैसा ही देखना चाहिए | दुनिया जैसी है उसे उसी रूप में देखने का प्रयास हो |
जो चीज जैसी नहीं है उसे वैसी मान लेना मिथ्यात्व है, जबकि तत्व को यथार्थ रूप में स्वीकार करना सम्यक्त्व है | अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में सम्यक्त्व का बड़ा महत्व है |
शुद्ध भावक्रियापूर्वक हमारी सभी प्रवृतियां हो,स्वर्ग यही है और इसके विपरीत अशुभ प्रवृति मन,वचन और काया की नरक रूप है,दुःखदाई होती है।
अतः हम जीवन की समस्याओं के प्रति सकारात्मक दृष्टि से देखेंगे कि ये समस्याएं हमारे पाप कर्मों का फल हैं तो हम अपने जीवन में सही से अच्छा परिवर्तन लाकर आध्यात्मिक उन्नति कर सकते हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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