हर मानव अपनी कर्म प्रकृति के अनुसार जन्म लेता हैं तो सबमें एक समानता कैसे हो सकती हैं । हर मानव में सबके समान अंग होते है पर उनके जीने का ढंग समान नहीं होता है ।
दृष्टि समान होने पर भी दृष्टिकोण समान नहीं होता हैं । नजर से ज्यादा नजरिये की पहचान ज्यादा महत्वपूर्ण है । जहां दृष्टि सकारात्मक रहती है वहां सदा आनंद की सरिता बहती है ।
भावों की दुनियां, विचारों के दर्पण मे प्रतिबिंबित होती है और भावों तरगें अपने कृतकर्मों के भार को ही ढ़ोती है फिर सभी की सोच को एक जैसी मानना तो अति कल्पना है क्यूंकि हर व्यक्ति की वेदना, संवेदना व्यक्तिगत होती है।
कहते हैं कि हमारे जीवन का चित्र ही नहीं चरित्र भी सुदंर हो । भवन ही नहीं हमारी भावना भी सुंदर हो ।साधन ही नहीं साधना भी सुंदर हो ।
प्रायः मानव दिखावे के चक्कर में कुछ – कुछ संसाधन प्रयुक्त करते हैं,वो उनकी सही मानसिकता न होने से करते हैं और उन संसाधनों में जो हिंसा होती है,उससे भी कर्मों के भार से अपनी आत्मा को भारी बनाते हैं और वो अस्थायी सुंदरता देने वाले भी होते हैं।
द्रष्टि ही नहीं हमारा दृष्टिकोण भी सुंदर हो । सबका देखने का नजरिया अलग होता है परन्तु सकारात्मकता के साथ जीना सार्थक होगा । क्योंकि हमारी जिन्दगी चंद दिनो की है।सभी के प्रति हमारा मैत्री भाव रहे,ईर्ष्या नहीं।
ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा ही इंसानो के बीच वैर पैदा करवाती है।हमारे कर्म बंधन का हेतु बनते हैं। हमारा सभी के प्रति मैत्री भाव रहे । इस तरह ज्यों-ज्यों हम स्वयं को जानते जाएँगे दूसरों को देख-देख कर अफसोस करने की हम अपनी मानसिकता भूलते जाएँगे। दुनिया में सब एक समान नहीं हो सकते यह भी सब सही से समझते जाएँगे।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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