प्रश्न आता हैं कि भीतर में क्या हैं ? भीतर में क्यों उतरे और उतरने का क्या – क्या लाभ आदि – आदि ? हम जिंदगी अपनी इच्छा से नहीं जी सकते बल्कि अपने कृतकर्मों के अनुसार उदयावली में आये घटनाक्रम के अनुसार ही हमको जीना होता है । हां ।
हम उस समय समझदारी से उस समय आयी परिस्थिति को समभावपूर्वक सहन करके और घनिष्ट कर्म न बांधे , ये सम्भव है। सब कुछ हमारी इच्छा से होने लगे तो कोई दुःख नहीं चाहता, सब सुख चाहते है लेकिन दूसरों के चढ़ती से ईर्ष्या करना, किसी की खुशी में प्रमोद भावना होना और दुःख से द्रवित होना कम देखने में मिलता है ।
दुसरो को नीचा दिखाने की भावना जहां ही तो अपने साथ तो वही होगा जो बीज हमने बोया है । आम का फल बोकर ही आम पाया जा सकता है ।हम पश्चाताप और प्रायश्चित करके सावधानीपूर्वक सजग रहकर कर्मबन्धन से हल्के रहके आत्मविशुद्धि करने का सतत प्रयास करते रहे और पहले के कर्मो के रास को मन्द करके उसकी सही से उदीरणा समभावपूर्वक करके हल्के बनें।
हम शांतचित तभी रह सकते हैं जब हमारा ध्यान सतत इस ओर केंद्रित हो कि करते समय कोई भी किर्या में हम स्वतंत्र है लेकिन उसके बाद हमें वैसा ही बल्कि कई गुणा अधिक व्याज के साथ उसे भोगावली में आने पर भोगना भी है तो हम कभी ऐसा नहीं कर सकते।
नो हीने ,नो अयि रीते यानी न कोई नीचा है और न कोई ऊंचा।सब जीव समान है , जब हमारा ये दृष्टिकोण हो तो हम किसी के प्रति गलत व्यवहार नहीं कर सकते और हमारे साथ गलत आगे के किये का नहीं होगा लेकिन कब कब के किये हुए तो हमारे आगे अब आएंगे ना तो उन्हें किये का फल समझकर समभाव से सहनकरें।उसके प्रति कोई अक्रोशक भाव न हो जिससे आगे से आगे ये शृंखला प्रगाढ़ न होने पाएं।
क्योंकि कर्म हमारे अपने किए हुए हैं , कब किस परिस्थिति में वह कैसा फल देंगे यह हम नहीं जानते इसलिए हमें हमारी सोच से विपरीत परिस्थिति होने पर ही पश्चाताप होता है। जैन धर्म के इतिहास को देखें जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्हें विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है 16 सतियों के जीवन को देखें अधिकतर सभी ने संघर्षमय जीवन जीया हैं ।
क्षत्रिय कुल में जन्मे भगवान महावीर को भी विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ा । कर्म ने केवलज्ञानियों को भी नहीं छोड़ा लेकिन उन लोगों ने पश्चाताप नहीं किया।
विपरीत परिस्थितियों को कर्मों का क्षयोपशम समझा इसलिए संतोष एवं शांति पूर्वक विचार हमारे भीतर सकारात्मकता का प्रवाह होता है तो स्वयं ही मन कह उठता है जो हुआ अच्छा हुआ जो होगा वह अच्छा होगा अपना कर्म समझ accept कर लेने से पछतावा नहीं होता हैं ।
क्षमता यदि आपमें है तो कीचड़ में भी कमल बन खिल पाओगे वरना खूबसूरत उपवन में भी फूलों को मुरझाते देखा है । कर्म के गहन बन्ध करने से डरें, बंधे हुए को भोगने में नहीं, क्योंकि हम कर्मबांधने में स्वतंत्र है, भोगने में नहीं , ये हमेशा हमारा चिंतन चलता रहे तो हम जागरूक रहते हुए कर्मबन्ध से काफी हद तक बच सकते हैं ।
अतः समझदार वही है जो पूर्व जन्म के कर्मों का प्रभाव समझ लेता है कि वह अपना शोर मचाता ही रहेगा, इसकी एक ही राह हैं जिसके महावीर एवं बुद्ध आदि के जीवन भी गवाह हैं कि उतरें भीतर सांस की छोर और बढ़ें मुक्ति की ओर।यहीं हमारे लिए काम्य है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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