आज के समय में मानव की हालत यह हो गई हैं की उसे फुर्सत ही नहीं है । इतनी मानव को व्यस्तता है कि उसे अपने आप से मिलने की भी फुर्सत नहीं है । मानव की ख्वाहिश है इतनी कि वो दूर बैठे भगवान से मिलने की मन में रखता है।
हम अपने सहज स्वभाव में रहें क्योंकि घर में,समाज में सब मनुष्यों के स्वभाव मिलना सम्भव ही नहीं है क्योंकि अपने – अपने कर्मसंस्कारों के अनुरूप कोई किस गति से अवतरित हुए है और कोई किस गति से तो सब एक जैसे कर्मसंस्कारों से युक्त हो ये सम्भव नहीं हैं । मनुष्य जीवन मिलना एक दुर्लभ अवसर हैं।
दृष्टि स्व-निरीक्षण की आँख खुलती है आत्म परीक्षण की ।जरूरत है स्वयं के भीतर जा कर देखने की क्या पाया क्या खोया क्या मेरा जीवन कितना सार्थक रहा आदि प्रश्नों का उत्तर खोजना है।
वैसे तो जीवन कैलेंडर के लाल खांचों में झांकती एक एक तारीख के साथ एक नयी चुनौती देता हैं और जिसे पार कर हम खुद के साथ सबको आनंदमयी बना देते है। क्योंकि जीवन में सद्दकार्य मन के द्वार पर बजती हुई सांकल है, स्मृतियों में महकती ज्योति शिखा है।
यह ऊर्जा की हिमालयी मुस्कान है, पगडंडी पर रखा यह दीप है। यह जलता हुआ दीप एवं खिलता हुआ गुलाब रूपी सद्दकार्य न केवल हमारे लिए बल्कि हम सभी के लिए प्रशन्नता भरा उत्सव होगा।
ताकि व्यापारिक, सामाजिक, धार्मिक एवं व्यक्तित्व विकास के संकल्पों के साथ-साथ पारिवारिक एवं व्यक्तिगत अपेक्षा की ज्यादा से ज्यादा समय जीवन सफल एवं सार्थक बनाये।
क्या फर्क पढता है हमारे पास कितने करोड़ हैं, कितने लाख हैं, कितनी गाडियां हैं, कितने घर आदि हैं । खाना तो बस दो रोटी ही है जीना तो बस एक ही जिंदगी है। फर्क इस बात का पडता है, कितने पल हमने खुशी से बिताये। कितने लोग हमारी वजह से खुशी से जिए। यही आत्मिक खुशी है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)