हमारा जीवन हमारी सोच के इर्द – गिर्द ही रहता है । जैसे हमारे सोच-विचार होंगे वही हमारे कर्म-आधार होंगे यानी हम जो सोचते हैं वही सोच हमारे अंदर भाव निर्मित करते हैं।
वे ही भाव हमारे कर्म के कर्णधार होते हैं और कर्म अंतिम परिणाम के आधार होते हैं । वह इससे हमारा जीवन प्रभावित होता हैं ।शरीर एक नौका है और उसको चलाने वाला जीव है जो नाविक है ।
जैसे बिना ड्राइवर के गाड़ी का कोई मूल्य नहीं होता वैसे ही बिना आत्मा के शरीर का कोई मूल्य नहीं होता है । शरीर और जीव का बहुत गहरा संबंध है ।
मानव शरीर मिलना बहुत ही दुर्लभ है जिसको पाने के लिए देवता भी तरसते हैं क्योंकि मानव शरीर के द्वारा ही मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है ।
आस्तिक लोगों का चिंतन पर लोक तक होता है उनमें त्याग , तपस्या की भावना आदि होती है । किसी ने कहा है कि यह जो शरीर रूपी वृक्ष मिला है उसके अनेक फल हैं ।
कौन किस रूप में इससे काम लेता है वह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है । इस शरीर से हम भगवान की , गुरु की सेवा पूजा आदि कर सकते हैं वह इसी शरीर को हम फालतू समय में बर्बाद भी कर सकते हैं इसलिए इसका सदुपयोग होना चाहिए ।
जीवन में अनुकंपा यानि दया का भाव , गुरु जनों के बड़ों के प्रति सम्मान आदि होना चाहिये । धर्म शास्त्रों, आगमो का अध्ययन आदि भी होना चाहिए यही जीवन का सार है । शरीर का सही दिशा में उपयोग हो इस बात का विशेष ध्यान हमको रखना चाहिए ।
अतः हम अपने भावों पर सदा नियंत्रण रखे और सदा स्वस्थ सोच को आमंत्रण दे जिससे हम अपने जीवन का पल-पल व हर क्रिया का क्षण-क्षण सुधार कर सके ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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