हम अपनी सोच में इस अनावश्यक चिन्तन में घिरे रहते है कि हमारे से दूसरे की जिन्दगी अच्छी है । यह अनावश्यक मिथ्याभ्रम का कोई तथ्य नहीं है क्योंकि हम भूल जाते हैं कि हम भी तो दूसरों के लिए हैं एक दूसरे ही हैं ।
मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है। जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता।
जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता। आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।
उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर। तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ।इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।
जीवन की इस भागम-भाग में आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता।जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया।
इच्छा की अनन्तता ही प्राणी को दुखी करती है । इसलिये सन्तों के पास अपनी कोई इच्छा नहीं होती । और कोई भी बात का ज़िक्र करे तो भी कहते है की प्रभु की जो मरजी हो वह मेरी इच्छा ।
इस इच्छा में शांति है इसलिये सन्त होते है और हमें इसलिए फटकार लगाते हैं ताकि इच्छाओं पर अंकुश हो | जरा सोचें, मन के पट खोलें और अनावश्यक मिथ्याभ्रम न पालें।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)