निर्मल अविचल पल-पल विश्वप्रकाशी, कोमल चरण कमल, हर रोज नई भोर व नव ऊर्जा आनंद नव प्रभात को देने वाले व जिनकी सम्यक् दृष्टि मात्र से ही हम बन जायें सदा अजर अमर ( मोक्षगामी ) अविनाशी ऐसे विशिष्ट गुण धारी भगवान पार्श्वनाथ को उनके जन्म कल्याणक दिवस पर मेरा शत् -शत् वन्दन ।
भगवान के स्मरण मात्र से ही जीवन में शांति का अहसास होता है। तीर्थंकर सदैव वन्दनीय व स्मरणीय होते है । भगवान पार्श्वनाथ के जीव ने इस धरा पर अन्तिम अपने जीवन में आगमन किया तो उस समय चारो और खुशहाली छा गई क्योंकि 34 अतिशय धारी भगवान का इस धरा पर आगमन हुआ ।
मुझे दिवंगत शासन श्री मुनि श्री पृथ्वीराज स्वामी ( श्री डूँगरगढ़ ) स्वाध्याय लेखन आदि के समय कितनी बार तीर्थंकरों की महिमा का गुणगान करते हुए फरमाते कि प्रदीप तीर्थंकरों में ऐसा आकर्षण होता है जो स्वतः ही किसी भी जीव को अपनी और आकर्षित कर लेता है अगर अपन कल्पना करे तीर्थंकरों की तो स्वतः ही कर्मों का क्षय उनके सामीप्य योग अध्यात्म के प्रभाव से हो जाता हैं जो चुम्बकीय आकर्षण से भी तेज होता हैं ।
तीर्थंकरों के आस – पास के वातावरण में सर्वत्र खुशहाली छाई हुई होती है तभी तो प्रथम से चतुर्थ आरे तक ही तीर्थंकरों का जन्म होता है । इस तरह मानो कितनी – कितनी बाते तीर्थंकरों की मुझे मुनिवर बताते थे ।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। वाराणासी में अश्वसेन नाम के इक्ष्वाकुवंशीय क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी वामा ने पौष कृष्ण एकादशी के दिन महातेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जिसके शरीर पर सर्पचिह्म था ।
उनका प्रारंभिक जीवन राजकुमार के रूप में व्यतीत हुआ। तीर्थंकर बनने से पहले पार्श्वनाथ को नौ पूर्व जन्म लेने पड़े थे। पहले जन्म में ब्राह्मण, दूसरे में हाथी, तीसरे में स्वर्ग के देवता, चौथे में राजा, पांचवें में देव, छठवें जन्म में चक्रवर्ती सम्राट और सातवें जन्म में देवता, आठ में राजा और नौवें जन्म में राजा इंद्र (स्वर्ग) तत्पश्चात दसवें जन्म में उन्हें तीर्थंकर बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: वे तीर्थंकर बनें। भगवान पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में ही गृह त्याग कर संन्यासी हो गए। 83 दिन तक कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्य ज्ञान के पश्चात्य चातुर्याम (सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह) की शिक्षा दी।
भगवान पार्श्वनाथ वास्तव में ऐतिहासिक व्यक्तित्व थे। उनसे पूर्व श्रमण धर्म की धारा को आम जनता में पहचाना नहीं जाता था। भगवान पार्श्वनाथ से ही श्रमणों को पहचान मिली। वे श्रमणों के प्रारंभिक आइकॉन बनकर उभरे। ज्ञान प्राप्ति के उपरांत सत्तर वर्ष तक आपने अपने मत और विचारों का प्रचार-प्रसार किया तथा सौ वर्ष की आयु में देह त्याग दी।
भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियां देश भर में विराजित है।
जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। भगवान पार्श्वनाथ जैन धर्म के तेइसवें (23वें ) तीर्थंकर है । वर्तमान में काल चक्र और इसके चौथे युग तक 24 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। आज का दिवस बहुत महत्वपूर्ण है।
भगवान महावीर ने तीर्थंकर पार्श्वनाथ के लिए पुरुषादानीय अलंकरण का उपयोग किया था। उवसग्गहरम और कल्याण मंदिर जैसे स्तोत्र उनकी महिमा के साक्षात निदर्शन है। उनका विहार क्षेत्र भी वहूत बड़ा था।
अहिंसा को प्रतिष्ठित करने में उनका महान योगदान रहा।अश्वसेन और वामा देवी के पुत्र ने वाराणसी में जन्म लिया और दीक्षा के पूर्व ही जलते नाग के जोड़ें को नमस्कार मंत्र सुनाकर उनका कल्याण किया। पाखंड पर भी प्रहार किया और सपष्ट उदघोषणा की अहिंसा ही धर्म का मार्ग है।
नाग का जोड़ा धरणेन्द्र और पदमावती देव और देवी बने जिन्होंने पार्श्वनाथ पर जब कमठ देवता यातना देता है तो वे आकर कमठ को भगाते है। मूसलाधार बरसात में 7 सर्प केआकार के छत्र पार्श्व के शीर्ष पर बना देते है और भगवान के साधना में सहयोगी रहे ।
सम्यक्त्व की सुरक्षा पर बहुत बल उपसर्गहर स्तोत्र में दिया जाता है। गुरुदेव तुलसी ने तो अपने गीत में यह कामना की है हम सब पारस का ध्यान लगाकर पारस बन जाये। आज मंत्र साधना के प्रारम्भ का शुभ दिवस है, तप, जप स्वाध्याय के द्वारा हम भगवान पार्श्वनाथ का जन्म कल्याणक मनाए ।
ओम् अर्हम सा !
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)