कहते है कि बेहतर जीवन के लिये समय के अनुसार चलना चाहिये । समय के साथ चलना बुद्धिमत्ता भी है। यह बात कम ज्यादा सबको पता है। परिवर्तन हो, परिष्कार हो,ये समय के साथ बहुत जरूरी है पर स्वयं को बदले बिना,दुनियां को बदलने की बात अधूरी है।
हमारे अपने स्वार्थ के आगे,परमार्थ की बातें दम तोङ देती है क्यूंकि हमारी कथनीऔर करनी के बीच की खाई, बहुत गहरी है। जो रीति-रिवाज पीढ़ियों से चल रही है उनमें से अधिकांश रीति-रिवाज निभाना आज के परिवेश में बहुत मुश्किल होता है।
तब हर कोई चाहता है कि समय के अनुसार पीढ़ियों से चल रही रीति रिवाज में कुछ परिवर्तन हो पर परिवर्तन चाहता है अपने मन के अनुसार फिर समस्या आती है कि इसकी शुरुआत कौन करे। हम लोग सामाजिक प्राणी हैं।
जब समाज में रहते हैं तो उस समाज के क़ायदे क़ानून भी हमको अनुसरण करने होते हैं। आज के समय में हम जब अनेकांत का दृष्टिकोण ताक पर रख देंगे तो किसी एक के परिवर्तन पर सभी सहमत कैसे होंगे।
मेरा भी मत यह कि समाज में चल रही पुरानी प्रथाओं में बदलाव की आवश्यकता है तो हम्हें अपने हिसाब से नही सोचना चाहिये।ज़रूरत है समाज आगे आये और सभी के सुझाव सुनकर आपसी ताल-मेल से बदलाव को प्राथमिकता देनी चाहिये।
समयानुसार जमाना बदला है और आगे भी बदलेगा। अतः ज़रूरी है हम बदलते समयानुसार विवेक पूर्वक अपने को ढ़ालें और समाज के लिए स्वीकार्य बना लें पर साथ में यह भी ध्यान रहे कि हम अंधानुकरण मन में कभी न पालें।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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