मैंने जिन्दगी में देखा है की मानव के दर्द, गम , डर आदि जो भी हैं बस ! आदमी के अन्दर ही हैं और स्वयं आदमी द्वारा ही ये सब बनाए हुए हैं।
जब तक वृत्तियाँ खुली रहेंगी,तब तक शांति का निर्बाध-पथ पाना भी असम्भव हैं।शांति का मूल है आकांक्षाओं की अपेक्षा।
जिससे प्राप्त होगा आनंद, तभी घर के चारों कोनों से हँसने की आवाज़ होगी,सुबह द्वार की साँकल ख़ुशियों की किरण से आँगन में जगमगाएगी।
एक चूल्हा,एक आँगन ,एक सुख मन का, एक आँसु हो सभी का ,एक दुःख तन का और प्यार-त्यौहार हो सभी का। सांसारिक शांति है जब शाम का थका-हारा श्रम चैन से सोए, सुबह का सूरज जगत के तम-कलुष धोए। उम्र हो हर साथ ,बचपन के खिलौने संग।
अतीत की स्मृतियाँ और आगे भविष्य की कल्पनाओं के साथ-साथ वर्तमान वातावरण होगा जीने का सही आनंद।
अनुकूलता और प्रतिकूलता, सुख-दुःख, निंदा और प्रशंसा, लाभ और अलाभ, आपस में नीचा दिखाना , ईर्ष्या ,झुठ , राग – द्वेष – आदि इन द्वंदों में सम रहने के अभ्यास से सांसारिक-आध्यात्मिक शांति की अभिव्यक्ति होगी।
अगर आँसू न होते तो आँखे इतनी खुबसूरत न होती और दर्द की नुमाइश ना करना ही मुस्कान का राज हैं। मुस्कान को तभी रोको जब वो किसी को चोट पहुंचा रही हो इसलिए मुस्कुराने की आदत डालिये कि परिस्थिति भी आपको परेशान कर – कर के थक जाए और जाते जाते जिंदगी भी मुस्कुरा कर बोले आप से मिल कर खुशी हुई ।
इसलिये आदमी अगर जरा हिम्मत कर खुद के बनाए पिंजरे से निकल कर देखेगा तो महसूस करेगा कि वह भी एक सिकन्दर है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)