किसी भी मानव के भीतर में स्वार्थ हो सकता है कि मैं अब सही से आर्थिक रूप से सुदृढ़ हो गया हूँ , अतः मुझे सभी लोग ही नहीं गुरुजन आदि भी सम्माननीय समझें और विशेष आदर सम्मान दें वह अग्रिम पंक्ति में स्थान दें आदि – आदि ।
हम इस चिन्तन में यह भूल जाते है कि धर्म पैसे से नहीं बल्कि राग- द्वेष से विमुख होने में है । यह कोई नहीं बता सकता कि हमारी आख़िरी साँस कौन सी होगी।
हर व्यक्ति यही सोचता है कि अभी मेरे जाने का समय आया नहीं है । यह मिथ्या है। वर्तमान समय भौतिकता वाला है।इस चकाचौंध भरी दुनियाँ में दौलत के पीछे अधिकतर मानव इस क़दर पागल हो गयें है कि वो धन प्राप्त करने के चक्कर में अपना सुख-चैन खो रहे है।
वह मानव को ना जीवन में शांति है,ना पर्याप्त नींद है,ना परिवार के लिये समय आदि – आदि है ।वह जिस शरीर से मानव काम ले रहा है उसको स्वस्थ रखने के लिये भी उसके पास समय नहीं है।
हम देखते है कि मन की लोभी तृष्णा का कोई भी अंत नहीं होता है । हमको जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत हमारी बढ़ने लगती है।
वह जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता है । हमारे जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता है ।
हमारे जीवन में कभी आगे सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता आदि – आदि ,वह बस ! बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर ही आदि – आदि ।
अतः जीवन के धर्म स्थान में आदरणीय वह है जो धर्म के भूषण से सुसज्जित है और धर्म का भूषण वैराग्य है न कि धनाढ्य होना आदि – आदि ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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