आज के समय में हम देखते है , समझते है व अनुभव आदि करते है कि युवा पीढ़ी धर्म से विमुख हो रही है । इस विमुखता के कारण में मैंने जानने का प्रयास किया तो इसके परिणाम मुझे सामने साक्षात दिखे ।
एक घटना प्रसंग किसी युवा ने मुझे कहा कि धर्म और सब बीमार आदमी के , बूढ़ो के , निवृत के , भीतर में स्वार्थ पूर्ति आदि व्यक्तियों के लिये रह गया है तो मैंने कहा तुम्हारे लिये ( स्वयं ) धर्म का क्या चिन्तन है तो उसने तपाक से कहा सुबह से शाम तक काम करो ,पैसे ज्यादा से ज्यादा कमाओ पैसे है तो सबकुछ है ,रात को परिवार के साथ रहो, छुट्टी के दिन घूमो खाओ , सबके साथ रहो यही है धर्म तो मैंने कहा यह तो तुम्हारा दायित्व हुआ प्राप्त मनुष्य भव में स्वयं के कल्याण के लिये तुम क्या कर रहे हो ?
तो वो मुझे बोले स्वयं के कल्याण क्या होता है ? मैं यह नहीं जानता ? तो मैंने कहा महाराज के दर्शन करने जाते हो तो वह बोला यह घर के बड़ो का काम है ।मेरा काम नहीं है महाराज के जाना मतलब समय देना जो मेरे पास नहीं है ।
तो मैंने कहा बड़े बोले नहीं कभी जीवन में दर्शन महाराज के किया करो तो वह बोला बड़े ख़ुद ही महाराज के कितने जाते है जो मुझे रोज दर्शन करने को बोलेंगे ।
तो मैंने कहा तुम्हारे नगर में महाराज और पधारते है तुम अवश्य उनसे समय लेकर एक बार दर्शन सेवा करना तो तुरन्त बोला मुझे किसी पद या समाज के लफड़े में नहीं पड़ना तो मैंने कहा तुम सिर्फ आत्म कल्याण के बारे में जानना महाराज से वो ही बात करना तो तुम्हें
सही ध्यान में आयेगा तो वह बोला मैं कोशिश करूँगा कभी मेरे विचार में जाने का जमेगा तो जाकर महाराज के पास दर्शन सेवा करने का कि महाराज कैसे सबकुछ बताते आदि – आदि है ।
तो मैंने कहा मेरे कहने से समय लेकर अवश्य जल्द जाना तो बोला देखूँगा पक्का नहीं कह सकता जाने का । बच्चों का सही संस्कारों से विकास करना या नहीं करना यह हमारे बड़ो के ऊपर निर्भर है । हम जैसा जीवन में आचरण करेंगे बच्चें वैसे ही देख कर सीखेंगे ।
बच्चों को धार्मिक क्षेत्र महाराज आदि के पास में हम लेकर जाएँगे तो ही बच्चें धर्म का मर्म सही से समझ पायेंगे। हम स्वयं ही धर्म को नहीं समझते जानते सही से तो बच्चों को धर्म के बारे में क्या बतलायेंगे।
आज की युवा पीढ़ी स्पष्टता को पसन्द करती है जो उनके भीतर है वही बाहर वाणी पर है । धर्म मूल है क्या इसके बारे में स्पष्टता नहीं होगी तो युवापीढ़ी का धर्म से जुड़ाव कैसे होगा ? बिना स्पष्टता के धार्मिक क्षेत्र में जाना युवा पीढ़ी को पसन्द नहीं आयेगा ।
जीवन का प्रयोजन आज का तो ऐसा ही लग रहा है बचपन बित्यों बातां में , नींद से काढ़ी रातां में ।आदमी पहले धन कमाने के लिए स्वास्थ्य गँवाता है, फिर स्वास्थ्य प्राप्ति के किए धन ख़र्च करता है, और अंततः दोनों गँवा लेता है।
शांति और सेहत का कहीं दूर दूर तक ठिकाना नही हैं। अरे जब तक शरीर में सामर्थ्य है, इंद्रियाँ परिपूर्ण हैं,मन ऊर्जा से भरा हैं, तब तक चित्त से युवा धर्म को साधे यही जीवन की सम्पदा हैं ।
पर जाने क्यों यह हर पीढ़ी को सोचना है की पैसा ही सब कुछ है पर एक सच्चाई यह भी है की शोहरतों का पैमाना सिर्फ पैसा नहीं होता है जो सुख -शांति से जिए वो भी मशहूर होता है। मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।
जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता जाता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है। जिसका जीवन में कभी भी अंत ही नहीं होता।जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता।
आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता। उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर।
आज युवा पीढ़ी की धर्म से विमुखता का मुख्य बिंदु यही कहता है कि तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब यहाँ से विदा हुआ तो ख़ाली हाथ। इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।
जीवन की इस भागम-भाग में आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता।जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया।
हमारी आशा व विश्वास की दिशा सदा सकारात्मक हो, उसके साथ सही के लिये सदैव हम प्रयत्नशील रहे और हमारे द्वारा कोई भी किसी भी दृष्टि से कार्य निराश करने वाला व भ्रामक ना हो। आत्मा के अन्तिम लक्ष्य की और बढ़ते जाये ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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