दुःख, कष्ट और विपरीत परिस्थितियाँ तो जीवन का अभिन्न अंग हैं जो हमारे साथ सदैव रहते हैं । हमारा जितने दिन का आयुष्य हैं कभी कम कभी अधिक हरदम वे हमारे संग रहेंगी ही रहेगी ।
उनसे हम घबराएँ नहीं बल्कि उसे समभाव से सहन करे क्योंकि कर्म बाँधने में हम स्वतंत्र है कर्म भोगने में स्वतंत्र नहीं है ।
उस समय सम्भाव से यह चिन्तन हमरा हो कि अच्छा है मेरे कर्म उदय में आ गये है और मेरी आत्मा कर्मों के मैल से हल्की हो रही है ।
सुख और दुःख धूप-छाया की तरह सदा इंसान के साथ रहते हैं ।लंबी जिन्दगी में खट्ठे-मीठे पदार्थों के समान दोनों का स्वाद चखना होता है ।
सुख-दुःख के सह-अस्तित्व को आज तक कोई मिटा नहीं सका है । जीवन को सुन्दर और सुसज्जित बनाने में सुख और दुःख आभूषण के समान है, इस स्थिति में सुख से प्यार और दुःख से घृणा की मनोवृत्ति ही अनेक समस्याओं का कारण बनती है और इसी से जीवन उलझनभरा प्रतीत होता है ।
अतः जरूरत है इन दोनो स्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने की, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की, एक दुखी आदमी दूसरे दुखी आदमी की तलाश में रहता है।
उसके बाद ही वह खुश होता है, यही संकीर्ण दृष्टिकोण इंसान को वास्तविक सुख तक नहीं पहुंचने देता, अतः जबकि हमें अपने अनंत शक्तिमय और आनन्दमय स्वरूप को पहचानना चाहिए तथा आत्मविश्वास और उल्लास की ज्योति प्रज्ज्वलित करनी चाहिए, इसी से वास्तविक सुख कासाक्षात्कार संभव है।
क्योंकि जैसे पतझड़ हुए बिना पेड़ पर नए पत्ते नहीं आते ठीक इसी तरह कष्ट और संघर्ष सहे बिना जीवन में अच्छे दिन नहीं आते हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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