सदगृहस्थ और साधु है पूजनीय। सम्यक्तत्व हो साथ में वह अभिलषणीय। गृहस्थ तो कपड़ों के साथ -साथ आभूषण भी पहन लेते रमणीय। पर पदार्थ परक आभूषण है सिर्फ दर्शनीय।
यदि पहनना चाहते आभूषण तो पहनो ऐसे जिनसे जीवन हो जाये अभिभूषित। हाथ का आभूषण दान तो सिर का आभूषण है- गुरुचरण वंदना शोभित। मुख का आभूषण- सत्य वचन है तो कान का आभूषण- प्रवचन श्रवण शास्त्र संपोषित। हृदय का आभूषण है- स्वच्छ वृति तो भुजाओं का आभूषण- शक्ति परिपूरित। बाह्य आभूषण केवल दिखावा ।
आकर्षित करता सिर्फ एक बार पहनावा। आदमी ऐश्वर्य और सत्ता के बिना भी हो सकता विभूषित। यदि हो उसमें सही से साधना,सेवा और चारित्र अनुगुंजित। हम कपड़ो की जगह करें गुणों का सम्मान। तो होगा सच्चा सम्मान। जब मनुष्य अंतर्मुखी होता है तो उसे ज्ञात होता है कि मनुष्य का मानसिक संसार उसके बाह्य संसार के फैलाव से कम नहीं है।
जितना बाह्य संसार का विस्तार है, उससे कहीं अधिक आंतरिक संसार का है अर्थात मनुष्य को आत्मस्थिति प्राप्त करने के लिए उतना ही अधिक अध्ययन, विचार और अन्वेषण करना पड़ता है, जितना कोई भौतिक विज्ञान में रुचि रखने वाला अन्वेषक करता है।
संसार की यह सभी वस्तुएँ आत्मसंतोष के लिए हैं । यदि मनुष्य को आत्म संतोष का सरल मार्ग ज्ञात हो जाए तो वह सांसारिक पदार्थों के पीछे क्यों दौड़े ?
पर यह आत्मसंतोष प्राप्त करना सरल काम नहीं है जितनी कठिनाई किसी इच्छित बाह्य पदार्थ के प्राप्त करने में होती है, उससे कहीं अधिक कठिनाई आत्मज्ञान प्राप्त करने में होती है |
अतः एकाएक मन को अंतर्मुखी नहीं बनाया जा सकता पर धीरे-धीरे उसे अभ्यास के द्वारा अंतर्मुखी बनाया जा सकता है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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