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हार्दिक इच्छा : Hardik Ichha

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प्रभु ! एक विनती लेकर आया हूँ कि कभी भी मेरा मन इतना अहं से न भर जाए कि मैं अपने आप को दूजों से बड़ा समझने लग जाऊँ । मैं इतनी ऊँचाई जीवन में कभी भी नहीं चाहता कि मुझे माँ धरती भी पराई लगने लगे ।

हर आत्मा का जन्म निश्चित है।हर आत्मा अपने पिछले जन्मों के कर्मों के अनुसार ही इस सृष्टि पर जन्म लेती है। उसी क्रम में एक मनुष्य जीवन आता है ।जन्म से लेकर मृत्यु तक का जीवन एक किताब की तरह होता है।

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जिसका पहला पेज सूचक होता है मनुष्य का जन्म और अंतिम पृष्ठ इंसान की मृत्यु है । पहले और अंतिम पेज के बीच के पन्नो को इस जीवनकाल में हम्हें ही भरना होता है।अच्छे या बुरे कार्यों द्वारा।

जन्म और मृत्यु तो नदी के दो किनारे है जो आपस में कभी भी नहीं मिलते है जिंदगी इन दोनों के बीच में बहता हुआ पानी है।पानी स्वच्छ हो तो उसमें से सब साफ दर्पण की तरह झलकता है।हमारे गुण भी हमारे व्यवहार में ऐसे ही झलकने चाहिए।

जब किताब के पन्ने को पलट जाए तो वो सदाचार से भरपूर हो ,जो पाठक के मन को सम्मोहित करलें तब हमारे जीवन की सार्थकता है । सकारात्मक सोच से भरपूर , सहज , सरल कथनी करनी आदि की समानता व संतोष, परोपकार आदि विवेक की छलनी से छनी हुई हो हमारे जीवन का कण – कण ।

क्योंकि परमात्मा प्रदत्त-कोरी पुस्तक है यह जीवन , कुशल कलाकार की भाँति, मनोहर कृत्तियों से हर पृष्ठ का आँगन इसमें हमको भरना है । इसलिये प्रभु कृपा कर मुझे ज्ञान अवश्य देना पर मैं ऐसा ज्ञान नहीं चाहता जिसको पाकर मैं अभिमान करने लगूँ । मुझे देना ही है तो मेरा मन ऐसा कर दें जिसमें रहम का सागर भर दें। सेवा भाव से दिल छला-छल कर दें।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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