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प्रभु भक्ति में रमना : धुव्र-2

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में आर्थिक तरकी तो खूब कर रहा है पर धर्ममाचरण में पिछड़ रहा है। हम जब अतीत में देखते हैं तो अनुभव होता है कि हमारे
पूर्वज बहुत संतोषी होते थे।वो धन उपार्जन के साथ अपना धर्म आचरण कभी नहीं भूलते थे , जब उनके अंदर आध्यात्मिक और धार्मिक आचरण कूट-कूट कर भरे हुये होते थे तब वो ही संस्कार वो अपनी भावी पीढ़ी को देते थे।

वह आर्थिक प्रतिस्पर्धा से कोसों दूर रहते थे। आज के समय में चिंतन का मुख्य बिंदु यही दर्शाता है कि अगर होड़ लगाओगे तो दौड़ ही लगाओगे पर आध्यात्मिक और धार्मिक गुणों से विमुख हो जाओगे।अतः दौड़ जरुर लगाओ पर साथ में हमको आध्यात्मिकता और धार्मिकता भी जीवन में धारण करनी चाहिये।

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प्रसन्नता का सफलतम तरीका असल में पुण्योदय से जो हमें प्राप्त हुआ ,हम उसमें संतुष्ट रहें,इससे हमारा आगे आत्मकल्याण निश्चित है। अतृप्ति दुःख का मूल कारण है,एक आदमी फटेहाल में भी खुश रह सकता है इस चिंतन से कि मेरे को पंचेन्द्रिय मनुष्यजन्म मिला है ,ये मेरा अहोभाग्य है और एक दूसरा इसके विपरीत दूसरे पर मेरे से ज्यादा क्यों?

के चिंतन में प्रसन्नता को भंगकर कुढ़ता रहता है अंदर ही अंदर और अपर्याप्त के पीछे भागता रहता है और अपना बहु कीमती मानुष जन्म गंवा देता है तो हम हमेशा पुण्योदय से प्राप्त में संतुष्ट रहते हुए प्रसन्न रहें जो स्वास्थ्य का भी मूलमंत्र है और विकास की ओर अग्रसर होने का भी गंगोत्री में डुबकी लगाने के समान सुअवसर प्राप्ति के लिए सही अवसर है ।

हमारे जीवन में हर स्तिथि हो मनोनुकूल यह आवश्यक नहीं है पर ये हमारे वश में है कि प्राप्त परिस्तिथि को हम अनुकूल बनायें। हम अपनी खुशियों का जहाँ है उसी में बनायें । हम समभाव से हर स्तिथि को अपनायें क्योंकि दु:ख तो अप्राप्य में बसा है और-और की चाह में रचा है ।

हम जरुरत को ही ज़िंदगी की जरुरत समझें वह अनावश्यक को जीवन से हटायें । हम संतुष्टि से जिंदगी में हर्षोल्लास लायें और हर दिन उत्सव मनायें ।हमारी नन्ही सी , प्यारी सी ,हल्की-फुल्की सी, अनमोल ज़िंदगी है ,व्यर्थ
(क्रमशः आगे)

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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