आजकल एक तरफ खाद्य शुद्धि व स्वास्थ्यप्रदता पर तो बहुत ध्यान दिया जाता है पर वहीं आज की पीढ़ी में जंक फूड का चलन बेतहाशा बढ़ता ही जा रहा है। निस्सन्देह इस पर ध्यान देना तो अत्यंत आवश्यक है ही , पर साथ ही साथ एक अन्य और विषाक्तता पर भी सावधानी परम आवश्यक है।
वह है विचार विषाक्तता। खाद्य विषाक्तता का तो शायद औषधि से उपचार किया जा सकता है पर विचार विषाक्तता तो पूरा जीवन ही
विषाक्त कर देता है।क्योंकि जैसा हम अन्न खाते हैं वैसा ही हमारा मन होता है और वैसे ही हमारे विचार उत्पन्न होते हैं ।
भोजन क्यों ? इसके समाधान में कही कारण हो सकते हैं लेकिन मुख्य कारण जीवन चलाना हैं । भोजन का हमारा औचित्य जीवन चलाने का हो ना कि भोजन का । शरीर को धारण करने के लिए खाना जरुरी हैं ।
इसलिए जीवन का , शरीर का और आहार का गहरा संबंध हैं । जीवन का अर्थ है प्राण धारण करना । जीवन श्वास और आहार दो तत्वों पर टिका हैं । जो श्वास लेता हैं , वह जीता हैं । जो खाता हैं , वह जीता हैं । जीवन के दो लक्ष्य बन गए – श्वास लेना और जीना ।
श्वास के बिना कोई रह नहीं सकता और खाए बिना कोई जी नहीं सकता । आहार और जीवन – ये शाब्दिक दृष्टि से भिन्न प्रतीत होते हैं , किंतु तात्पर्य की दृष्टि से ये दोनों एक हो जाते हैं । आहार का अर्थ हैं जीवन और जीवन का अर्थ है आहार ।
आहार और जीवन दोनों जुड़े हुए हैं । हल्का भोजन शुद्ध हवा और सब रोगों की एक दवा हैं ।अगर हमारा विवेक जागृत नहीं तो दवा क्या पुष्ट करेगी। अत: आहार का हम विशेष संयम रखें। तनावमुक्त होकर भोजन करें।
हड़बड़ी में भोजन न करें।चबा चबा कर भोजन करें।दांतों का काम आँतों से न लें।इसलिए चाहे जैसा भोजन हो सदैव हमारी वृत्तियों में समता रहे , तनिक आवेग भी नहीं बढे ऐसी क्षमता हम प्राप्त करे ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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