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मन प्रांगण क्यों कबाड़खाना बनाया जाता है

Mind courtyard
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घर के आँगन में रोज सफाई होती है क्योंकि अगर सफाई नहीं होगी तो धूल-गर्द आदि आकर के अपना साम्राज्य अधिकार जमा लेंगे वैसे ही यदि कभी कुछ दिनों के लिए घर बंद कर जाना पड़े तो आने पर हम देखते है कि धूल की अच्छी-खासी परत हमारा स्वागत करने को तत्पर रहती है।

ठीक इसी तरह प्रतिदिन हमारे मन के अन्दर भी कुछ अवांछनीय विचारों की गर्द जमती ही रहती है। उसे रोजमर्रा संकल्पों व प्रतिक्रमण के झाड़ु आदि के द्वारा परिष्कृत करनी जरूरी होती है।

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मानव की कमजोर नब्ज को हम पहचान जाते है इसमें एक से एक आकर्षक, रंगारंग वस्तुएँ मन को लुभाती हैं जो हमारे जीवन में संयम के सारे पायदान पार कर जाती हैं जिसको हम स्वयं ही सही से नहीं समझ पाते है ।

यह बाजार कुछ और नहीं हमारे ही मन का आंगन है जिसको कबाड़खाना बनाया जायें या सही से भरा जाये । नित नवीन अरमानों का जन्मदाता हमारा ही मन प्रांगण है ।

हम ही अपने मन की कमजोर कड़ी है हममें ही निहित उन्हें मंद करने की बड़ी शक्ति है । ज्वार सी उफनती अभिलाषाएँ अनन्तानन्त है उन्हें पूर्ण करना जीवन पर्यन्त सम्भव नहीं है इसीलिए असंतुष्टि की ज्वाला में हम जलते रहते हैं , आजीवन अतृप्ति के गहन दु:ख में दग्ध होते हैं ।

यदि आपका मन प्रसन्न नहीं तो हमको प्राप्त सब सुविधाएं बेकार है इसलिए आत्मिक आनंद ही में निहित सारे सुखों का असली सार है । अतः हम सोचें कि घर-आँगन में जब रोज झाड़ू लगाया जाए तो मन प्रांगण को क्यों कबाड़खाना बनाया जाए।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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