कुछ भी घटित होता है तो हम कह देते है कि यह कलयुग ही नहीं मतलबी युग है। किसी के मन के अनुकूल हम कर रहे है तो ठीक है इसके विपरीत हुआ तो हम उसके लिये खराब हो जाते है ।
स्वार्थ में आसक्ति तो बिना छाया के सूखी लकड़ी है और सदैव संताप देने वाली है। क्या आप अपने आस पास की दुनिया से परिचित हैं ? यदि हां तो किस हद तक ?
जहाँ तक अपना स्वार्थ सिद्ध हो वहीँ तक न ? दूसरी तरफ क्या आप अपने स्वयं से परिचित हैं ? यदि हां तो कहाँ तक अपने पहनावे से , रहन सहन से और अपने शरीर आदि से ही तो ?
सही में आप न दुनिया से परिचित हैं और न ही अपने आप से। आप जी रहे हैं स्वार्थ, दिखावा, क्रोध, मान , माया, लोभ राग और द्वेष की दुनिया में।
ताकती आँखे फैलाए हाथ देख क्या हृदय द्रवित नही होता। मासूम को देख, कितने निष्ठुर बन गए हम, हमें अपने अहम् व अपने स्वार्थ आदि से बढ़कर कुछ नही दिखता हैं।
किसी को कुछ दान देने का ढकोसला हम बख़ूबी निभाते है। जब भी जी चाहे नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग एक चेहरे पे कई चेहरे लगा लेते हैं लोग।
इंसान की फ़ितरत हैं गिरगिट की तरह रंग बदलना गरज हैं ,ज़रूरत हैं , स्वार्थ आदि हैं तब तक याद करना। बचपन में हम सुनते थे की गरज हो तो गधे को भी बाप बनना पड़ता हैं। स्वार्थ सधा तो तु कौन में कौन।
देखते ही देखते, सितारे बदल जाते हैं। हाथ में आकर, किनारे फिसल जाते हैं। बहुत मतलबी हो गया है ये जमाना देखते ही देखते अब, नारे बदल जाते हैं।
ना रूकी वक़्त की गर्दिश और ना ज़माना बदला है। पेड़ सुखा तो परिंदों ने ठिकाना बदला हैं । उस समय हमारी सारी अच्छाइयां बुराइयाँ हो जाती हैं फिर तो उन्हें हमारी शक्ल भी नहीं सुहाती है । आज की रीत यही गीत गाती है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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