आदर्श व आनन्ददायक सामाजिक जीवन की बात चल रही थी तो एक व्यक्ति ने कहा इसके लिए हमें प्रकृति की चर्या को देखनी चाहिए जो कहती है स्वार्थी मत बनो , परमार्थ की चर्या हो जैसे – नदियाँ कभी अपना जल नहीं पीती हैं , वृक्ष की टहनियाँ अपने फल स्वयं नहीं खाती हैं , पेड़ छाँव स्वयं नहीं लेते है आदि – आदि ।
इस तरह हमारे जीवन की सार्थकता का प्रश्न आता हैं ? प्रतिस्रोत में वही बह सकता जिसके कर्म घसीजे हैं। क्षण क्षण मरना छोड़,हम जीने का अभ्यास करें।भाव विशुद्धता से जुड़ कर जीवन का आनंद वरें। सात्विक जीवन वृति ही अगला भव परिष्कृत करेगी । गुरु वचनामृत धार से हम उपकृत बन जाएं।
किनारे पर खङे झूमते दरख्तों मे दरिया की महत्ता तब नजर आती हैं जब खलिहानों में झूमती डालियों के संग नन्ही सी चिङिया चहचहाती है । किसी के जीवन की सार्थकता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितने दिलों मे विश्वास और प्रेम की निर्मल ज्योत जला पाता है।
मन पर नियंत्रण जीवन का सुखद अहसास है । दूसरो को निःस्वार्थ भाव से खुशी देना जीवन की सार्थकता का एक अटूट विश्वास है । अच्छे भावो से मन की स्थिरता बढ़ती है जो हमारे जीवन के पल पल को परिमार्जित करने वाला एक विन्यास है।
मनुष्य जीवन वह भित्ति है,जिसके सुदृढ़ आधार पर आत्मा अपने चरम लक्ष्य-परमात्म-पद को उपलब्ध हो सकती हैं,अपना सर्वोच्च अभ्युदय कर सकती है।अतःअपना विवेक और हित इसी में सुरक्षित है की मनुष्य जीवन की दुर्लभता और विशिष्टता समझकर उसका एक-एक क्षण सफल बनाए।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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