जुलाई 2020 में भारत सरकार द्वारा एक नई शिक्षा नीति की घोषणा की गई। यह नीति अंतरिक्ष वैज्ञानिक के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट पा आधारित है।
यह शिक्षा नीति स्वतंत्र भारत की तीसरी शिक्षा नीति है। इसके पूर्व 1966 एवं 1986 में शिक्षा नीतियाँ लागू की गई थी। हमारी शिक्षा नीति 1986 से चली आ रही है। 34 साल से इस शिक्षा नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नही हुआ था। जबकि इस शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवश्यकता भी थी।
बदलते वैश्विक परिवेश में ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति करने एवं वैश्विक स्तर पर भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पहुँचाने के लिये शिक्षा नीति में परिवर्तन जरूरी था। ऐसे में नई शिक्षा नीति 2020 अपना विशेष महत्व रखती है।
इसमें विद्यालय स्तर-जिसमें प्री स्कूल, प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्चतर स्तर तक कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए है। इस शिक्षा नीति के द्वारा 2023 तक सभी के लिये समावेशी एवं समान गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा को सुनिश्चित करने के उद्देश्य एवं जीवन पर्यन्त शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा देने के लक्ष्य हमारे देश की आवश्यकताओं को पूरा करना है। यह नीति प्रत्येक व्यक्ति में निहित रचनात्मक क्षमताओं के विकास पर विशेष ध्यान रखती है।
एक सभ्य समाज का निर्माण उस देश के शिक्षित व्यक्तिओं द्वारा होता है और नारी या महिला या स्त्री इस कड़ी का अहम हिस्सा है। वैसे शिक्षा सभी के स्त्री हो या पुरूष दोनों के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है।
किसी भी देश के नागरिक होने के नाते शिक्षा प्राप्त करना प्रत्येक स्त्री का मूल अधिकार है। जो देश प्रगति एवं उन्नति एवं विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है। यदि वर्तमान परिस्थिति की बात करें तो आज महिला शिक्षा के क्षेत्र में बहुत आगे निकल चुकी है।
सभी क्षेत्रों में उसका पदार्पण हो चुका है। आज स्त्री हर क्षेत्र में आगे है लेकिन यह स्थिति सभी वर्ग की स्त्रियों पर आज भी लागू नही होती है। फिर भी पिछले कुछ वर्षों से महिला सशक्तिकरण को लेकर जागरूकता आई है। उनकी चेतना का उन्नयन हुआ है।
उनके आत्मविश्वास में इजाफा हुआ है, उनके निर्णय लेने की क्षमता बढ़ी है। इसका मुख्य कारण है कि महिला शिक्षा के माध्यम सर हर क्षेत्र में शीर्ष स्थान पर पहुँची है और अपने काम से उन्होंने लोगों को प्रभावित भी किया है।
इसका दबाव अन्य क्षेत्रों में भी काम कर रहा है। इससे शिक्षा के क्षेत्र में और गुणात्मक परिवर्तन आने की संभावना है। यह काम महिलाओं की सहभागिता के बगैर संभव नहीं है।
18 साल से 25 साल की उम्र वाली ये पीढ़ी एक तरह के अहसास से अभिभूत रहती है कि वह समाज मे बदलाव ला रही है। इसके आधार पर तो समाज को उसका आभारी होना चाहिए। समाज शास्त्री सुधा चिटनीस ने 3 मार्च 2004 के दैनिक भास्कर के मधुरिमा में स्त्री उदय के सम्बन्ध में लिखा था कि – “औरतों मे एक विशिष्टता होती है जिसका अहसास उन्हें हो गया है।
वे पीड़िता का दर्द महसूस कर सकती हैं।किसी के कर गुजरने के जज्बे को वे निजी उपलब्धियों में आगे रखती है, किसी जमाने में औरत होने का मतलब होता था, कमजोर माना जाना। अब उसका मतलब है एक विशिष्ट संवेदनशीलता का स्वामित्व।
ये सब स्त्री की जीविकोपार्जन की अनिवार्यता है। या यूं कहें कि भौतिकवाद का आग्रह उसे इस ओर प्रेरित कर रहा है। 21 वीं सदी ने महिलाओं को सबसे बड़ा उपहार दिया है-उसका आत्मविश्वास। और यह उसे शिक्षा जे माध्यम से ही प्राप्त हुआ है।
वह आज की स्त्री है, जिससे आप कभी भी मुलाकात कर सकते है। वह खूबसूरत है, वह आत्मविश्वास से लबालब है, वह स्वाभिमानी है, वह स्वाबलंबी है, यह स्त्री है, जो कुछ समय पूर्व सिर्फ एक गृहिणी तथा बच्चों की जजनी के रूप में अपनी भूमिका से संतुष्ट थी तथा घर की चहारदीवारी के बाहर अकेली या स्वतंत्र रूप से ही कहीं दिखलाई पड़ती थी।
इस शिक्षा नीति के फलस्वरूप आधुनिक समाज ने भी प्रकृति की उस चुनौती को स्वीकारा और अपनी संतानों की भी भरपूर जीवन भरा आसमान दिया। 80-90 के दशक में नारी मुक्ति आंदोलन को कुछ अवरोध का सामना करना पड़ा था। महिलायें स्वयं को नारीवादी या नारीमुक्ति का पक्षधर कहलाने में सकुचाने लगी थी, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह तस्वीर हद तक बदलती है।
यह नारीवादी सोच में आया हुआ एक अहम बदलाव है। यह इतना आदर्शवादी भी नहीं रहा कि स्त्री देवी और समाज में अच्छाई जे फरिश्ते के रूप में दिखाने लगे है। इनकी सोच अपेक्षाकृत अधिक गतिशील और व्यवहारिक ओर उग्र भी गया। वह स्त्री ने एक इंसान की तरह अच्छाई बुराई के समावेश को पहचानता है, इसका मतलब यह नही कि स्त्री उग्र हो गई है।
लेकिन सवाल यह उठता है कि आधुनिक समाज महिलाओं की उग्रता पर भी प्रश्न चिन्ह उठा रहा है। तो जब दुनिया के परिवर्तन की रफ्तार दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और इस बदलते समय के साथ चलने के लिए कदम तेजी से अग्रसर हो रहे है तब उंगलियां सिर्फ स्त्रियों पर क्यों उठती है .? आखिर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के परिणाम स्त्री को ही क्यों भोगने है ।
वह अपना कदम गलत दिशा में नही बड़ा रही है। इससे समाज-घर-परिवार बच्चों जी जिंदगी में आने वाले परिवर्तन को देखते हुए उसे भी बदलना पड़ेगा। फर्क सिर्फ पुरूष प्रधान, एकल समाज के दोगुने नियमों को आज ढोह रही है।
जहाँ स्त्रियों के लिए नियम अलग और पुरुषों के लिए अलग मान्यताएं थी, उसी सड़ी गली परम्पराओं ने स्त्री को कभी उठने नही दिया, परन्तु यह भी सच है कि जब भी पुरुष ने अपना हाथ स्त्री के कंधे पर रखा है और कहा है कि तुम आफॅ बढ़ो मैं तुम्हारे साथ हूँ तब उसने घर और बाहरी दुनिया दोनों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को पूरी ईमानदारी से निभाया है।
समाज मे अर्धनारीश्वर की अवधारणा को पूर्ण ब्रह्म की अवधारणा से वर्णित किया है। ब्रह्म प्रकृति और पुरूष दोनों के सहयोग से ही पूर्ण होता है। प्रकृति यानी स्त्री-स्त्रीण रहित, समग्र शक्तियों का केन्द्र अपार क्षमताओं का केंद्र, इन दोनों के लिए समाज सुव्यवस्थित हो सकता है।
यह हिंसा तथा शोषण का स्थान नही, क्योंकि स्त्री और पुरूष दोनों का चैतन्य स्वरूप है। इसलिए शिक्षा के साथ, विज्ञान के साथ नये समाज, नई अवधारणायें, नई मान्यताओं का स्पंदन संस्करण सम्भव है जब स्त्री अपने समग्र आंतरिक शक्तिओं का विकसित स्वरूप धारण करे।
जीवन का कोई भी आयाम अछूता नही है जिसे ये शक्ति स्वरूपा नारी सम्पादित न कर सके। शिक्षा के द्वारा ही इस सृष्टि के विकास में नारी का मूल स्वरूप है, उसका पल्लवन है, इसका श्रेय भी इसी शक्ति को जाता है।
इसलिए किसी भी प्राणी मात्र से स्पर्धा का सवाल ही नही है। उसकी क्षमताओं के अनुरूप इस समाज को सुंदर बनाने में सभी का योगदान रहना चाहिए। जिसमें नारी का महत्वपूर्ण योगदान है।।
डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
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