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प्रकृति का स्वभाव है निस्वार्थ सेवा

प्रकृति का स्वभाव है निस्वार्थ सेवा
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प्रकृति का स्वभाव कितना सुन्दर हैं जो हमको निस्वार्थ सेवा देता है इसके विपरीत मानव का स्वभाव सदा हर काम में आगे लाभ का उद्देश्य है ।

हर काम में यह गणना रहती है कि इससे मुझे क्या लाभ होगा यह तो पहले बता दे। हे मानव ! सोचो जरा। क्या प्रकृति का कोई भी तत्व कभी ऐसा भला सोचता है ।

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चिड़िया चहकती है, कोयल मधुर तान सुनाती है । कोई श्रोता है भी कि नहीं, परवाह ही नहीं करती हैं । सूरज , चन्द्रमा आदि ये सब तो आत्मतोष को महत्व देते हैं। किसी की वाह-वाह की आशा नहीं करते हैं। अपना धर्म निभाए जाते हैं।

किसी के दर्द को जानना-समझना और उस पीड़ा को दूर करने की नि:स्वार्थ सेवा ही जीवन का महान शिलालेख हैं । निस्वार्थ भाव से सेवा कर्म करिए क्योंकि इस धरा का इस धरा पर सब धरा रह जाएगा केवल संवेदना जो दिल से होगी वही साथ आएगा।

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निस्वार्थ सेवा मन की अदभुत तरंगे है जो दया के सागर में बहती हैं वह अनेको का कल्याण करती है ।दुखित – पीड़ित जन के दुःखों को हरती है पर स्वयं के बारे में कुछ भी न सोचतीं हैं बस दया के सागर में लहराती रहतीं हैं ।

तटों से निरन्तर टकराती हुईं करुणा बरसाती हैं जो मोती बनकर सबको सुकून देती हैं ।सीप रूपी दवा बनकर बीमारियाँ दूर करती हैं । दया के सागर में सबको पनाह देतीं हैं ।

निस्वार्थ सेवा मन कीं ऐसी तरंगे है जो बस एक हीं धुन में बहती रहतीं है और अहिंसामय संगीत में थिरकती रहती है ।हर कंकड़ रूपी कष्ट को सहकर पर कल्याण को हीं अपना सुख मानती जाती है ।

निस्वार्थ सेवा मन कीं ऐसी धर्ममय तरंगे है जिनके आगे सभी जन शीश झुकाते है और देवी – देवता भी नमन करते है । निस्वार्थ सेवा कर जीवन को धन्य बनाते ।

सारा ब्रह्माण्ड एक यज्ञ की तरह निष्काम भाव से काम करता रहता है जबकि मानव के हर काम में लाभ का उद्येश्य हैं , उसका हर कदम इसी सोद्देश्य दृष्टि से उठता है ।

इसी कारण मानव जाति कभी अवसाद से , कभी तनाव से और सभी तरह के मानसिक शारिरिक कोप से भी , कई तरह के प्रकोप आदि से भी पीड़ित होती हैं । अतः यह सोचे मानव ! प्रकृति-दोहन करना छोड़े और अन्तरावलोकन कर प्रकृति से आत्म-शोधन करना सीखे।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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