ADVERTISEMENT

साधु – सन्त के प्रति हमारे भाव कैसे हो ?

ADVERTISEMENT

पाँच महाव्रतधारी त्यागी साधु – साध्वियों के प्रति हमारे भाव निर्मल से निर्मल रहने चाहिये । कहते है की साधुचर्या में किसी भी रूप में हम सहयोगी बनेंगे तो हमारे कितने – कितने भव के कर्म हल्के होगे और मोक्ष को जल्द से जल्द वरण करेंगे ।

मुझे दिवंगत शासन श्री मुनि श्री पृथ्वीराज जी स्वामी (श्री डूंगरगढ़ ) ने बोरावड़ में कितनी – कितनी बार कहा की प्रदीप तुम गृहस्थ जीवन जीने वाले प्रयास करो की ज्यादा से ज्यादा साधु के सम्पर्क में रहो व साथ में किसी ने किसी रूप में अवसर आते ही निमित बनो जिससे तुम्हारे कितने – कितने भव के कर्म हल्के होंगे ।

ADVERTISEMENT

जैसे – साधु को शुद्ध भाव से दिया हुआ दान कितने – कितने हमारे कर्मों को काटता है आदि – आदि । साधु संसार क्रियाओं से सदैव मुक्त रहते है ।

साधु संयम साधना में रत रहकर साधना से अपने को भावित करने में लगे रहते है । जिससे कम से कम भव में साधु मोक्ष श्री के वरण की शुद्ध भावना से सरल रह अपना साधुपन तो पालते है ही साथ में साधु तो एक चींटी को भी नहीं मारते हैं ।

ADVERTISEMENT

बाकि चीजो की हम कल्पना ही क्यों करे । अभी बोरावड में प्रवासित सतीवर की सरलता आदि हमे सहज रूप में आकर्षित कर रही है ।

साधना संयम का तेज साथ में इसमें योगभूत हैं । ईमानदारी, ज्ञान तथा संयम चारित्र आदि ना बाजार में मिलता है और न ही यह कभी उपहार में मिलता है ।

यह गुणत्मकता व्यक्ति के द्वारा स्वयं ही विकास से आती है जो खुद का अपना ही गुण हैं । जो खुद के व्यवहार में मिलता है । यदि हम अपने व्यवहार को सच्चा व अच्छा बनायेंगे तो साधुओं के प्रति आकर्षित रहेंगे ।

और तभी अपने जीने के अर्थ को समझकर सही जीवन जी पायेंगे । अहिंसक और ज्ञानी अभय होता है । संतों को किसीका भय नहीं होता हैं ।

एक सन्त के पास सिकंदर गया और बोला – चलो मेरे साथ।संत बोले मैं नहीं चलूंगा। दो तीन बार कहने पर भी जब यही मिला जवाब। तो सिकंदर का अहंकार फुफकार उठा।

आख़िर वो राजा था । वो बोला संत को की – देखते हो तुम्हारे पास कौन खड़ा है । तो संत ने मधुर आवाज में कहा की आदमी खड़ा है । फिर आगे सिकंदर बोला कि – मेरा नाम सम्राट सिकंदर हैं । यह देखो मेरी तलवार । मेरे साथ चलो नहीं तो तुम्हारा सिर काट देता हूं ।

संत ज्ञानी और अहिंसा शूर थे शांत रहकर बोले किसका सिर काट दोगे । मुझे तुम मार नहीं सकते हो । क्योंकि मेरी आत्मा अजर अमर अविकार है ।

संत के मुख से ऐसी औजस्वी वाणी सुनकर सिकंदर कांप गया । सबको कंपाने वाला सिकंदर आज संत के सामने नत मस्तक था। संत के ज्ञान और अहिंसा आदि के आगे अहंकार को झुकना पड़ा ।

क्योंकि ज्ञानीऔर अहिंसक अपने मार्ग पर बढ़ते जाते है वह रुकना नहीं जानते हैं । अहंकारी निर्भय कभी नहीं बन सकता है । ज्ञान और अहिंसा की सदा विजय होती है ।

हमारी आशा व जीवन में विश्वास आदि की दिशा सदा सकारात्मक हो । उसके साथ पुरुषार्थ का सही से प्रयास करते हुए योग हो, । सन्तों का साथ में सुयोग भी हो ।

जिससे कोई गति ना किसी दृष्टि से निराश करने वाली व भ्रामक आदि हो । साधु – सन्त के प्रति हमारे भाव पवित्र निर्मल हो ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

यह भी पढ़ें :-

इकिगाई : Ikigai

ADVERTISEMENT

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *