जीवन के हर गुण , झुकाव के इस गुण में ठहराव में नम्रता- विवेकता-विनीत आदि समाहित है ये सब इसके पर्यायवाची हैं। विनय से विवेक का दीप जलता है। विनय सिंचन से वृक्ष फलता हैं । आवेश से बनता काम बिगड़ता है ।
विनय से मुरझा सुमन खिलता है । हम भगवान को स्मरण कर बोल देते है कि विपदा मुझपर, आन पड़ी है, नाथ हरो। जीवन नौका, नदिया डूबी, पार करो। तेरा सुमिरन, करती निशिदिन, हे ! भगवन । भगवन! तुम ही मेरे, मीत सखा हो ।
प्रियवर का अर्थ है अति प्रिय, प्यारों में श्रेष्ठ, सबसे प्यारा आदि – आदि । अतः जो हमारे सबसे निकट होता है वह भी प्रियवर होता है । एक घटना प्रसंग परमात्मा के पास दो शिष्य पहुंचे ।
एक का नाम था मन और दुसरे का नाम श्वास था।उनके दोनो ही शिष्यों के हाथ मे माला रहती थी । यह देखकर प्रभु ने तत्काल उनसे प्रश्न पुछ लिया कि माला में कितने मनके है? यह सुन मन ने हँसकर उत्तर दिया कि 108 मनके होते है ।
वह मन ने कहा कि आपने बहुत ही आसान प्रश्न पुछा । यह सुन प्रभुवर ! ने कहा कि माला के मनके ही तो चाहते है कि उन पर मन टिक जाए पर मन रुपी चंचल घोड़े निरन्तर दौड़ते रहते है वह 108 बुद्धि की लगाम मन को रोकती है ।
यह सुन मन ने सब राज खोलकर रख दिया कि मै तो किसी मनके पर नही टिकता हूँ फिर भी न जाने बुद्धि माला के मनके गिन- गिन भ्रमित रहती है ।वह चंचल मन को केवल यह देखकर कि 108 पर ही माला पूर्ण हो गई रोक पाती है ।
ये वार्तालाप श्वास सुन रहा था । वह बोला माला पर तो हमको मनको का भान नहीं रहता है वह श्वास तो परमात्मा के साथ रहता है । यह प्रश्न फिर मुझसे क्यो पूछ रहे हो प्रभुवर ।यह सुन परमात्मा ने मुस्कराकर कहा कि तुम ही तो मेरे प्रियवर ! शिष्य हो । जीवन का लक्ष्य बने वह सब स्वप्न साकार हों प्रियवर ! श्वास की माला ही तो मुक्ति दिलाती है ।
वह तभी तो मै मनुष्य से कहता हूँ माला फेरे तू क्यो मनके गिन – गिन के। सही कहते है कि जो आनंद कहने में नही वो सहने में है । वह जो आनंद चलने में है वो रुकने में नही है ।
गतिशील चरण ही मंझिल पाते हैं जो आनंद विनय-विवेक-विचार में है -वो आक्रोश में नही है । आज इन्ही गुणों के सहारे घर-परिवार-समाज-संघ-एवं गुरु दृष्टि में सृष्टि पाई है जितना हम विनम्र रहेंगे उतना स्वयं के निकट रहेंगे, जितना स्वयं के निकट रहेंगे उतना शांत रहेंगे, विनम्रता हमारे आक्रामक व्यक्तित्व में बाधा नही बल्कि आभूषण बनकर रहेगी।
हमको इससे सब्र-सहनशीलता की अंदरूनी ताक़त आएगी, माना कि घमंड की जिंदगानी चारदिन की है पर विनय की बादशाही तो ख़ानदानी हैं ।
कोई भी व्यक्ति अपने पद से महान या कोई बड़ा नही बनता है बल्कि वह अपने विनय से-विवेक से- आचरण से बड़ा होता है । अतः हमें अपने अनंत शक्तिमय और आनन्दमय स्वरूप को पहचानना चाहिए तथा आत्मविश्वास और उल्लास की ज्योति प्रज्ज्वलित करनी चाहिए, इसी से हमको वास्तविक सुख का साक्षात्कार संभव है।यही हमारे लिए काम्य है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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