ये बैंक बेलेंस, घर, जमीन-जायदाद, गहने धन तो है पर साथ ही साथ चिंता भी हैं और जहाँ चिंता है वहाँ कैसी प्रसन्नता ? कैसा उल्लास ? वहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ द्वंद, उपद्रव, अशांति, और सबसे ज्यादा अराजकता यह बाहरी से ज़्यादा व्यक्ति के भीतर है।
माना कि मानव जीवन में धन आवश्यकता की पूर्ति के लिये आवश्यक है जो अन्त समय तक काम आ सकता है जबकि धर्म आत्मा की शुद्धि के लिये बहुत महत्वपूर्ण है । धर्म करके सिर्फ और सिर्फ मानव भव में ही मुक्ति हो सकती है।
धन होना बुरा नहीं है लेकिन धन के प्रति आकर्षण आसक्ति गलत है। आर्थिक सम्पन्नता बढ़ जाने पर अधिकांश जनों के व्यवहार में आये हुए परिवर्तन की तरफ इंगित करते हुए गुरुदेव श्री महाप्रज्ञ जी ने लिखा बड़ो सादो है पण कने धन कोनी, धन कोनी जणाई सादो है, नहीं तो आज ताईं रेतो ही कोनी, सादगी कदेई टूट ज्याती।
गणाधिपति श्री श्रावकों को दो फैक्ट्रियां लगाने के लिए फरमाते थे दिमाग में बर्फ की फैक्ट्री तथा जुबान पर चीणी की फैक्ट्री। धन – जन कंचन राज- सुख, सवहि सुलभकर जान। दुर्लभ है संसार मे , एक यथारथ ( केवल ज्ञान ) ज्ञान।
इस दुनिया में धन-सुख-कंचन आदि से भी बढ़कर दुर्लभ कोई हैं तो वह ज्ञान है । ज्ञान का दीपक जब प्रज्वलित होता है तब भीतर और बाहर दोनों ही तरफ प्रकाश ही प्रकाश का प्रतीत होना प्रारंभ हो जाता है और बिना गुरु ज्ञान नही , ज्ञान बिना ध्यान नहीं।
ज्ञान ही ध्यान है इस श्रेष्ठ धन का तप जो भी करता है वह ज्ञानामृत का घट भरता जाता है। कषायों का जंगल हैं , प्रपंच का दंगल हैं। ज्ञान प्रवर्धमान से चहुँ ओर मंगल ही मंगल होता है।
इसलिये धर्म कभी नहीं कहता कि धनाढ्य मत बनो।धर्म यह अवश्य कहता है कि धन के प्रति आसक्त मत हो सदैव निर्लिप्त रहो। धन से सद्कर्म करो।
धन का अहं कर पाप का घट मत भरो। धर्म कभी भी सांसारिक वैभव के खिलाफ नहीं है हॉं धर्म यह अवश्य कहता है कि जहॉं तक हो सके परिग्रह से बचो और अनासक्त रहो।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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