संवत्सरी महापर्व जैन शासन का सबसे बड़ा पर्व हैं । यह धर्माराधना का पर्व हैं , इसलिए इसका महत्व सार्वदेशिक और सार्वकालिक हैं । संवत्सरी महापर्व का दिन ।
पर्युषण का आठवां दिन । संवत्सरी का दिन शांतिपूर्ण सहवास के उदबोधन का दिन हैं । यह उपशम का दिन हैं । हमारे द्वारा यह प्रयास हो कि संवत्सरी महापर्व के दिन आध्यात्मिक विकास और उपशम की बात ही हो एवं शांतिपूर्ण सहवास की बात करे ।
संवत्सरी के संदेश को हम जानना चाहें तो वह संदेश यह हैं कि हमारा दिमाग कभी भी गरम नहीं हो । उसमें सदैव शीतलता और ठंडक अविराम बनी रहे ।
यह पर्व आध्यात्मिक विकास का पर्व हैं । भौतिक विकास, आर्थिक विकास , बौद्धिक विकास आदि – आदि विकास की बहुत सारी शाखाएं हैं । आज का युग विकास का युग हैं , किंतु चेतना का विकास नहीं हो रहा हैं । अध्यात्म का विकास नहीं हो रहा हैं ।
जब अध्यात्म का विकास नहीं होता , चेतना का विकास नहीं होता तब स्थितियां जटिल बन जाती हैं । अपने ढंग का एक निराला यह पर्व हैं ।
भारतीय संस्कृति में इसके समान कोई दूसरा पर्व नहीं हैं । यह एक ऐसा पर्व , जिसमें उपशम की बात सिखाई जाती हैं । आमोद – प्रमोद के तो बहुत से पर्व हैं , किंतु चेतना के रूपांतरण की प्रकिया वाले कितने पर्व हैं ? इस पर्व में मैत्री का पाठ पढ़ाया जाता हैं ।
क्षमा , अभय का पाठ पढ़ाया जाता हैं । संवत्सरी पर्व हमें भयमुक्त होकर आराधना करने की प्रेरणा देता हैं । संवत्सरी पर्व का संदेश यही हैं कि हमें अभय बनना हैं । भय पैदा करने वाले साधनों और हेतुओं को भी कम करना हैं ।
अतः हम कह सकते हैं कि संवत्सरी महापर्व क्षमा, अहिंसा व मैत्री का पर्व हैं और इसे पर्वाधिराज होने का गौरव प्राप्त है । हम इस पर्व पर आध्यात्मिक ज्योतिकिरणों से स्वयं को आप्लावित करते रहे यह चिंतन अपेक्षित है।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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