मनुष्य अनन्त जन्म बिता देता हैं औरों को देखने में , किंतु वह नहीं जानता कि उसके अपने भीतर क्या हैं ? छिलके को देखने वाला
बाहरी रंग , आकार से परिचित हो सकता हैं ? भीतर के रंग , रूप से नहीं ।
संवत्सरी महापर्व हमें भीतर मुड़कर देखने की और प्रेरित करता है। जिन्होंने भीतर देखा , वे तर गए । सौंदर्य दोनों तटों पर दिखाई देता हैं । रूप – सौंदर्य से हम परिचित हैं , इसलिए वही रुक जाते हैं । परंतु अरूप सौंदर्य भी वास्तविक हैं।
उसे पाने , देखने के बाद अब तक का देखा , सुना , चखा , सब फीका पड़ जाता हैं । संवत्सरी महापर्व पर सांयकालिन प्रतिक्रमण कर आज के दिन विगत हुई गलती भूलों आदि से हमारे मन को हम हल्का कर सकते हैं । प्रतिक्रमण , चेतना पर जो व्रण हो गए हैं , उनकी दैनिक , पाक्षिक एवं वार्षिक चिकित्सा की व्यवस्था देता हैं ।
प्रतिक्रमण भटकाव , विस्मृति एवं भूलों के कारणों की खोज और निवारण करता हैं। सामान्यतः प्रतिक्रमण हमारे अतीत में हुए पापों की विशुद्धि करता हैं । जो कदम ग़लत दिशा में , अशुभ कर्म – स्थानों में उठ गए हैं , उन्हें वापिस मोड़ने की प्रेरणा प्रतिक्रमण देता हैं । प्रति का अर्थ हैं वापिस और क्रमण का अर्थ हैं चलना ।
वापिस चलना । लौट जाना । जैसे – असत्य से सत्याचरण की और आना , हिंसा से अहिंसा की और आना , अशुभ से शुभ की और आना , प्रमाद से अप्रमाद की और आना , अब्रह्मचर्य से ब्रह्मचर्य की और आना , वैर से मैत्री की और आना , अस्वास्थ्य से मानसिक स्वास्थ्य की और आना आदि – आदि ।
मानव तब तक हल्का भारहीन नहीं होता , जब तक वह अपने भीतरी स्तर पर भारमुक्त नहीं हो जाता । यह भारमुक्तता हजारों- लाखों उपदेश सुनने से नहीं आती , इसके लिए चाहिए अन्तर का निःशल्य भाव और आराधना विराधना का शास्त्रीय ज्ञान ।
इस ज्ञान के अभाव में अनेक आत्माएँ विराधक बन जाती हैं । उस विराधना की विशुद्धि के लिए संवत्सरी महापर्व के क्षण अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं जिसमें सभी ( साधु – साध्वी तथा श्रावक – श्राविका ) को महास्नान अवश्य करना चाहिए व प्रायश्चित भी ले लेना चाहिए । इस तरह से यह पर्व हमको मंगलमय बनाता हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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