जीवन का सर्वोत्तम धन की बात आते ही प्रायः कह देते हैं कि अर्थ का होना ही सर्वोत्तम धन हैं जबकि यह सत्य नहीं है जीवन का सर्वोत्तम धन तो स्वस्थ तन, शांत मन और प्यार- सौहार्द से भरा कुटुम्ब का जीवन आदि हैं ।
इन्हें कही से खरीदा नहीं जा सकता है बल्कि इन्हें कमाना पड़ता है। जो लोग पूरी जिंदगी और-और में लगा देते हैं और सोचते रहते हैं अभी तो थोड़ा और कमा लें फिर मौज करेंगे जीवन के अगले दौर में ,वे आखिर उस तथाकथित अगले भोर में ठगा महसूस करते हैं ।
क्योंकि आगे जब वह दौर आता है तब वह दौर, वह भोर का पता चलता है कि यहाँ तो और ही शोर मच रहा है । जो शरीर-स्वास्थ्य उन्होंने अब गँवा दिया है वह तो सदा के लिए गया।
पारिवारिक कलह ने जो नुकसान कर दिया उसकी भरपाई तो कोई नहीं कर पाएगा।ना ही इन सबकी वजह से अशांत हुआ दिमाग पुनः जल्दी से शांत हो पाएगा। मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी – नयी चाहत भी बढ़ने लगती है।जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता।
जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता। आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।
उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर। तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ।
इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।जीवन की इस भागम-भाग में आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता।
जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया। अतः हम यह कह सकते हैं कि ख़ुशी पैसों की मोहताज नहीं होती हैं वह तो मन की शांति से ही प्राप्त होती हैं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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