भारतीय संस्कृति में वृद्धजनों को सदा से आदर, सम्मान और मार्गदर्शन की भूमिका में देखा गया है। यह वही भूमि है जहाँ भगवान श्रीराम पिता की आज्ञा मानकर 14 वर्षों का वनवास सहर्ष स्वीकार करते हैं और श्रवण कुमार अपने अंधे माता-पिता को कंधों पर बिठाकर तीर्थ यात्रा करवाते हैं।
ये केवल पौराणिक कथाएं नहीं, बल्कि उन मूल्यों का प्रतिबिंब हैं जिन पर भारतीय पारिवारिक ढांचा टिका रहा है। परिवार में दादा, परदादा या पिता को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और उनके निर्णय अंतिम माने जाते थे।
किंतु जैसे-जैसे समाज ने आधुनिकता और तकनीकी विकास की ओर कदम बढ़ाया, रिश्तों की गर्माहट, आपसी संवाद और परंपराओं का स्थान मशीनों और स्क्रीन ने ले लिया। 21वीं सदी में सामाजिक संरचना तेजी से बदली है।
एकल परिवारों का चलन बढ़ा है, महिलाएं आत्मनिर्भर बनी हैं, और महानगरीय जीवन की दौड़ ने परिवार को समय देने की संस्कृति को लगभग खत्म कर दिया है। ऐसे में वृद्धजन, जो कभी परिवार की धुरी हुआ करते थे, अब केवल एक कोने तक सीमित रह गए हैं।
उनके अनुभव और मार्गदर्शन को पुराना सोच कहकर खारिज किया जा रहा है। नई पीढ़ी के पास समय नहीं है, और धैर्य तो जैसे अब दुर्लभ होता जा रहा है। इस उपेक्षा और संवादहीनता के परिणामस्वरूप वृद्धजन मानसिक, सामाजिक और भावनात्मक अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं।
विडंबना यह है कि जिन्होंने संतान के सुख के लिए अपना जीवन होम कर दिया, उन्हीं माता-पिता को आज वृद्धाश्रम की चारदीवारी में अपनी अंतिम सांसों की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। संस्कृत का प्रसिद्ध श्लोक — “अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः, चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्” — केवल एक धार्मिक सूत्र नहीं, बल्कि एक सामाजिक शिक्षा है जो आज के संदर्भ में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
लेकिन अफसोस कि आधुनिक जीवनशैली में यह मूल्य धुंधले होते जा रहे हैं। अब सवाल उठता है — ज़िम्मेदार कौन है? क्या युवा पीढ़ी जिसने रिश्तों को सुविधानुसार निभाना शुरू कर दिया है? या वह सामाजिक व्यवस्था जो भौतिक उपलब्धियों को ही सफलता मानने लगी है?
या फिर तकनीकी युग जिसने इंसान को मशीनों से अधिक जुड़ा बना दिया है? इस परिस्थिति का एक और पहलू भी है — युवा पीढ़ी पर आज अभूतपूर्व मानसिक, सामाजिक और आर्थिक दबाव है। उन्हें नौकरी, प्रतिस्पर्धा, बच्चों की परवरिश, सामाजिक प्रतिष्ठा और महंगाई के बीच संतुलन बनाना होता है। ऐसे में जब बुज़ुर्गों की बातें उन्हें दखल लगती हैं, तो टकराव स्वाभाविक हो जाता है।
संवाद का अभाव, विचारों का टकराव बन जाता है और यह दूरी धीरे-धीरे रिश्तों को खोखला करने लगती है। यह पीढ़ियों के बीच की खाई (generation gap) है — एक ऐसी पीढ़ी जिसने जीवन में संघर्ष और संयम को जिया है, और एक ऐसी पीढ़ी जो “इंस्टेंट” परिणामों की दुनिया में जी रही है, जिसे तकनीक और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने कई मायनों में वास्तविकता से काट दिया है।
इस स्थिति को सुधारने के लिए आवश्यक है कि दोनों पीढ़ियाँ एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझें। बुज़ुर्गों को चाहिए कि वे युवाओं की समस्याओं, व्यस्तताओं और बदलती जीवनशैली को समझें, वहीं युवाओं को भी चाहिए कि वे अपने बुज़ुर्गों के अनुभव, प्रेम और सीख को सम्मान दें।
अगर युवाओं के पास ऊर्जा है, तो बुज़ुर्गों के पास जीवन का अनुभव और संतुलन की समझ है। दोनों का मेल ही एक संतुलित समाज की नींव रख सकता है।
समाज का यह दायित्व बनता है कि वह वृद्धजनों को सम्मानपूर्ण जीवन दे। उन्हें निर्णयों में शामिल किया जाए, उन्हें परिवार का हिस्सा बनाया जाए न कि उन्हें बोझ समझकर वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाए।
वृद्धाश्रम किसी समाज की मजबूरी हो सकती है, पर यदि वह आदत बन जाए तो यह सामाजिक असफलता का संकेत है।रिश्तों को निभाने में जब सहूलियत की जगह संवेदना और ज़िम्मेदारी ली जाएगी, तभी समाज अपने मूल्यों को बचा पाएगा।
अगर आज हमने अपने बुज़ुर्गों का सम्मान नहीं किया, तो कल हमें भी वही हालात झेलने होंगे। इसलिए यह समय है रिश्तों को फिर से जोड़ने का, संवाद को फिर से ज़िंदा करने का और यह सोचने का कि “वक्त के साथ छूटते रिश्तों” के लिए आखिर ज़िम्मेदार कौन है? जवाब हम सबको अपने भीतर ही खोजना होगा।
गरिमा भाटी “गौरी”
रावल कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन,
फ़रीदाबाद, हरियाणा।
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