वाणी के बाद बात आती है मौन की । प्रश्न हो सकता हैं कि जब हमारे पास बोलने की शक्ति हैं तो फिर मौन क्यों ? कहना तो यह चाहिए कि प्राप्त शक्ति का अधिकतम उपयोग करो ।
मन हैं तो चिंतन करो , वाणी हैं तो बोलो और शरीर मिला हैं तो क्रिया करो । यह वर्जना और निषेध क्यों ? मौन का अर्थ हैं बोलने की कला ।
केवल न बोलना मौन नहीं हैं । ढंग से बोलना , कलापूर्ण बोलना मौन हैं । शक्ति का उपयोग कब करना चाहिए ? क्यों करना चाहिए और कैसे करना चाहिए ?
ये तीनों महत्वपूर्ण प्रश्न होते हैं । हमारे पास बोलने की शक्ति हैं , किंतु इसका मतलब
यह नहीं हैं कि हर समय बोलते रहे ।
कब बोले ? पहले इस प्रश्न का उतर तलाशना चाहिए । निरंतर बोलते ही रहेंगे तो पागल हो जाएंगे , शक्ति क्षीण हो जाएगी । एक समय ऐसा आएगा कि वाणी पूरी तरह से अवरुद्ध हो जाएगी ।
शक्ति असीम नहीं हैं । उसकी सीमा हैं , अवधि हैं । हर शक्ति के साथ कला जुड़ी हुई हैं । बोले , लेकिन जब आवश्यकता हो तब बोले अन्यथा न बोलें ।
इसका नाम हैं मौन । अवसर हो तो बोलें , अवसर न हो तो न बोले । उपयोगिता हों , अपेक्षा हो , वहां बोलना चाहिए । ऐसे भी लोग होते हैं , जो मौके पर बोलने से चूक जाते हैं ।
जहां बोलना चाहिए , वहां नहीं बोलते और जहां नहीं बोलना चाहिए , वहां बोल पड़ते हैं । इससे काम बिगड़ जाता हैं । जहां बोलने की जरूरत हैं , वहां मौन धारण कर लेना बुद्धिमानी नहीं हैं ।
हमारी सारी प्रवृति वाणी पर टिकी हुई हैं । पूर्ण मौन से जीवन दूभर हो जाएगा । बोलने से समस्या बढ़ने के आसार दिखाई दें तो मौन हो जाना ही श्रेयस्कर हैं ।
यह एक बड़ी साधना हैं । कलह शमन का यह एक श्रेष्ठ उपाय हैं । मौन का एक अर्थ है बोलने की अपेक्षा को कम करना । बहुत कठिन है बोलने वालों के लिए मौन धारण करना या बोलने का संयम करना ।
जरूरत हैं बोलने की अपेक्षा को कम करने की । जितनी ज्यादा अपेक्षा , उतना ही ज्यादा वाणी का व्यापार । जितनी कम अपेक्षा , उतना ही मौन का अभ्यास ।
एक दिन का मौन हमारी जिंदगी में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं ला पाएगा । बदलाव और ठोस परिणाम की उम्मीद तो दीर्घकालिक अभ्यास से ही की जा सकती हैं ।
हमारा यह संकल्प जागे कि मेरे सामने कभी कोई आवेश और उत्तेजना में बोलेगा तो मैं उस समय मौन रहूँगा । हम उस समय मौन रहेंगे तो मौन हमको शारिरिक और मानसिक रूप से क्षतिग्रस्त होने से बचा लेता हैं ।
मौन की पृष्ठभूमि में होती हैं सहन करने शक्ति । मौन हमारी सहिष्णुता को बढ़ाता हैं । विवेक की शक्ति को जागृत करता है , फिर क्यों न हम मौन को अपने भीतर की शक्तियों की खोज में लगाएं ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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