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व्यर्थ है ऐसी सम्पदा कमाना : Vyarth hai Aisi Sampada

Vyarth hai Aisi Sampada
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सम्पदा कमाना बुरा नहीं है पर बुरा है इसमें मदहोश होना जिसके प्रभाव में मानव अहं रूपी घोड़े पर सवार होकर सही – गलत , अपनापन , रिश्ते – नाते आदि को भूल जाता है ।

मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है धन के प्रति आकर्षण।इंसान चाहे छोटा हो या बड़ा,धन के मोह में ऐसा फँसता है कि उससे दूर होना जैसे एक शराबी को शराब से दूर करना।

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जिसके पास कल तक कुछ नहीं था,आज बहुत कुछ है। जैसे-जैसे धन बढ़ता है वैसे-वैसे धन की तृष्णा के चक्रव्यूह में ऐसे फँसता है जैसे अभिमन्यु। उस चक्रव्यूह में घुसना तो आसान है पर बाहर आना बहुत मुश्किल।

हर व्यक्ति जानता है कि अंत समय में एक पाई भी यंहा से लेकर नहीं जायेंगे।पर धन की तृष्णा का आवरण आँखों के आगे ऐसा आता है कि वो इंसान धन का सही उपयोग करना तो भूलता ही है और साथ में धार्मिक क्रियाओं से भी दूर हो जाता है।

अधिक प्राप्ति की कामना ,दूसरे से अधिक मान सम्मान हो, संपदा हो, महल हो आदि हर मनुष्य की कामना रहती है और यही दुख का कारण बनता है।

भगवान बुद्ध की परिभाषा में यही तृष्णा है जो सभी मानव जाति के दुखों की जड़ है। मानव अपनी तृष्णा रूपी ज्वालाओं को शांत करने का प्रयत्न करता है पर उसे उनसे शांति प्राप्त नहीं होती है ।

वह कर्म बांधता जाता है, समुद्र की लहरों की तरह इच्छाओं पर सवार मनुष्य जीवन सागर में भटकता रहता है तभी तो कहा है कि ऐसी सम्पदा कमाना व्यर्थ है ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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