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धन ही सब कुछ नहीं

धन ही सब कुछ नहीं
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माना की जीवन में आवश्यकता की पूर्ति में अन्तिम समय तक धन सहायक होता है लेकिन धन ही सब कुछ है यह सही नहीं है।

हम आज के समय में देखते है कि हर कोई धन के पीछे दौड़ रहा है, उसे पाने के लिए नैतिकता को भी छोड़ रहा है ! पर, हम जरा गौर करें कि ऐसे धन के साथ मानव क्या पाता है और क्या खोता है , वह कितना नासमझ है कि धन पाने के लिए वह अमूल्य निर्मल जीवन को मैला करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता है।

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जीवन में बड़े-बड़े सपना देखना कोई ग़लत नहीं है ।हर इंसान के मन में हमेशा यह भाव रहता है कि मैं भी एक दिन बड़ा आदमी बनु , मेरे पास भी दुनियाँ की तमाम सुविधाएँ हो, लम्बा चौड़ा कारोबार हो और समाज में मेरी टूटी बोले पर आकांक्षा सभी की पूरी हो यह कोई ज़रूरी नहीं है , जब मन में सोचे सपने पूरे नहीं होते हैं तो कुछ इंसान उसको अपने दिल से लगा लेते हैं और इसके कारण कई घातक परिणाम भी सामने आते हैं।

वह कुछ लोग अवसाद में चले जाते हैं,तो कुछ लोग गलत जैसा जघन्य अपराध करने से भी नहीं चूकते है ।

यह भी सही है कि हमारी आशाएँ और आकांक्षाएँ हम्हें आगे बढ़ने के लिये प्रेरित करती है पर हर इंसान मन में यह सोच कर चले कि मैंने अपने मन में आकांक्षाएँ और आशाएँ तो बहुत की अगर उसका परिणाम हमारे अनुकूल हुआ तो बहुत अच्छी बात है और परिणाम आशाएँ के विपरीत रहा तो कोई बात नहीं , जो मेरे भाग्य में था उसी में संतोष है।

हम मन में यह भी सोचें की जो मुझे प्राप्त हुआ उतना तो बहुत लोगों को भी नसीब में भी नहीं है इसलिये जीवन में आशाएँ और आकांक्षाएँ ज़रूर रखो पर पूरी नहीं होने पर जो प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो ।

मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता है । वह जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है। वह जिसका जीवन में कभी भी अंत ही नहीं होता है ।

हमारा जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता है । वह आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।

वह उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास ! तो किसी के जीवन में अगर , तृष्णा तो विश्व विजेता सिकंदर की कभी पूरी नहीं हुयी और जब विदा हुआ तो ख़ाली हाथ गया , इसलिये कर्म ज़रूर करो और जो कुछ प्राप्त हुआ उसमें संतोष करना सीखो।

जीवन की इस भागम-भाग में हमारी आख़िरी साँस कौन सी होगी वो कोई नहीं जानता है । वह जिसने जीवन में संतोष करना सीख लिया उसका जीवन आनंदमय बन गया। अतः धन ही नहीं सबकुछ है।

वह तो एकदम तुच्छ है। हमारे पास में धन सिर्फ रहन-सहन का तरीका ही बदल सकता है, बुद्धि और नियति कभी नहीं बदल सकता है । हमारे द्वारा इसलिए नैतिकता जैसा मूल्यवान गुण छोड़ धन कमाना कदापि बुद्धिमानी नहीं है ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)

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