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क्यों बदल रहा है इंसान? : Why are Humans Changing?

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प्रश्न है कि आदमी क्यों बदलता है? मनोदशा क्यों बदलती है? कारण क्या है? कारण पर हम विचार करें। वह कारण बाहर नहीं है, अपने ही भीतर है।

एक ज़माना था जब माँ बाप भगवान से भी बढ़कर पूजनीय होते थे और आज का ज़माना जो पैसे और स्वार्थ के आगे ही है जिसमे भगवान ही क्या माँ बाप भी तुच्छ है ।

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एक ज़माना था माँ बाप का कहा पत्थर की लकीर होती थीं और अब तो मन माफ़िक़ न हो तो कोरी बकवास दक़ियानूसी सी लगती है या ज़माने की रफ़्तार ही सही से नही पकड़ी हैं ।

पहले कोई जमाना था जब गुरु ही हमारे निर्माता थे और वहीं से सारा ज्ञान कोश हमारे आता था। इसके विपरीत आज हमने गुरु की जगह गूगल को दे दी।

गूगल ही आज हमारा सत्यम शिवम सुंदरम हो गया। वह जो बता दे वही सत्य परम हो गया।इसीलिए तो आज हमारे पास जानकारी तो बहुत ज्यादा है पर समझदारी कम है।

इसी बात का तो पुराने लोगों को गम है। हर कोई अपनों से बहुत कुछ उम्मीद पर जीता है।अपने हैं तो भावी जीवन के लिये निश्चिंत जीवन जीने की उमंग रहती है।

वो उम्मीद ही जीवन जीने की आशा की किरण होती है। समय बदला।समय के साथ लोगों का सोच भी बदला। छोटी-छोटी बातें अपनो के बीच इस क़दर दूरियाँ बना देता है कि परिवार के सदस्य एक छत के नीचे रहतें ज़रूर है पर उनका रिश्ता एक अजनबी की तरह होता है ।

ना आपस में प्यार के दो बोल और ना ही कोई संवाद।इंसान के पास बहुत कुछ होते हुये भी नितांत अकेला महसूस करने लगता है। मनुष्य को ज्यादा तकलीफ़ तब होती है जब अपने ही पास में होकर दुरियाँ बना लेते हैं,चाहे वो बच्चे हों और चाहे अपना जीवन साथी आदि ।

आज आदमी के भीतर तन्हाई है क्योंकि आदमी का दिल कहीं , दिमाग़ कहीं है। पहले जमाने में जब हमारे पास कुछ नहीं था तो सब कुछ था और आज हमारे पास सब कुछ है पर देखा जाए तो जो पहले था वह आज कुछ भी हमारे पास नहीं है।

मैं उससे आगे , मैं उससे पीछे क्यों इसी दौड़ में हम खो गए हैं क्योंकि इसी संसार रूपी सोच में हमारी जिन्दगी के सारे लम्हें यों ही और जिन्दगी यूँ ही हमारे से फिसलती जा रही है जैसे कभी मानो वे नहीं थी ।

प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )

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