प्रायः हमारे देखने में आता है कि सुख के सब साधन होते हुए भी कभी खुश वे नहीं दिखते। क्योंकि अनगिनत ख्वाहिशों की नाव पर वे सभी सवार हैं। फिर भी तथाकथित सुखी रहने के साधन जुटाते रहते हैं । ताकि बिना किए पूरी एक भी ख्वाहिश अधूरी रह न जाए । ख्वाहिशों को पाल कर प्रसन्नता का तो उन्होंने द्वार ही बंद कर रखा है ।
उन्हें खुशी मिले तो मिले कैसे। सुख और दुःख धूप-छाया की तरह सदा इंसान के साथ रहते हैं ।लंबी जिन्दगी में खट्ठे-मीठे पदार्थों के समान दोनों का स्वाद चखना होता है । सुख-दुःख के सह-अस्तित्व को आज तक कोई मिटा नहीं सका है ।
कोई स्थिति में सुख से प्यार और दुःख से घृणा की मनोवृत्ति ही अनेक समस्याओं का कारण बनती है और इसी से जीवन उलझनभरा प्रतीत होता है । इन दोनों स्थितियों के बीच संतुलन स्थापित करने की, सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की, जरूरत है ।
एक दुखी आदमी दूसरे दुखी आदमी की तलाश में रहता है ,उसके बाद ही वह खुश होता है । उसका यही संकीर्ण दृष्टिकोण इंसान को वास्तविक सुख तक नहीं पहुंचने देता हैं।
अतः जबकि हमें अपने अनंत शक्तिमय और आनन्दमय स्वरूप को पहचानना चाहिए तथा आत्मविश्वास और उल्लास की ज्योति प्रज्ज्वलित करनी चाहिए । इसी से वास्तविक सुख का साक्षात्कार संभव है। ख्वाहिशें तो सदैव और – और को चाहती हैं जबकि खुशी को PLEASE, NO MORE जो मिल गया वही काफी है ।
तभी तो कहा हैं कि जब तक सही दृष्टिकोण नहीं होगा हमारी वहीं की वहीं समस्या उलझी हुई रहेगी ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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