जब सूरज ढलने लगता है तो हम अपने घर की लाइट जला देते हैं ठीक इसी तरह उम्र बढ़ने के साथ क्यों नहीं हम इस आत्मा को प्रकाश दे जो हमें आत्मा के वास्तविक स्वरूप में उद्धत कर सके और अपनी आत्मा का हित स्वयं साध सकें ।
मन की लोभी तृष्णा का कोई अंत नहीं होता।जैसे-जैसे सोचा हुआ हाशिल होता है वैसे-वैसे और नयी चाहत बढ़ने लगती है।जिसका जीवन में कभी अंत ही नहीं होता।
जीवन की इस आपा-धापी में जीवन के स्वर्णिम दिन कब बीत जाते हैं उसका हम्हें भान भी नहीं रहता। आगे जीवन में कभी सपने अधूरे रह गये तो किसी के मुँह से यही निकलता है कि कास अमुक काम मैं अमुक समय कर लेता।
उनके लिये बस बचता है तो किसी के कास तो किसी के जीवन में अगर। यह कोई नहीं बता सकता कि उसकि आख़िरी साँस कौन सी होगी।हर व्यक्ति यही सोचता है कि अभी मेरे जाने का समय आया नहीं।यह मिथ्या है।
वर्तमान समय भौतिक्ता वाला है। इस चकाचौंध भरी दुनियाँ में दौलत के पीछे इंसान इस क़दर पागल हो गया कि वो धन प्राप्त करने के चक्कर में अपना सुख-चैन खो रहा है।
ना जीवन में शांति है,ना पर्याप्त नींद है,ना परिवार के लिये समय है और जिस शरीर से काम ले रहा है उसको स्वस्थ रखने के लिये भी समय नहीं है।
जीवन में असली सुख की परिभाष देखनी है तो हम्हें देखना चाहिये हमारे पूर्वजों का जीवन।उनका जीवन सादा,सरल,सच्चा और संतोषी था।
बड़ा परिवार होने के बावजूद वो अपना जीवन शांति से बिताते थे तो क्या हम बिना स्मार्टफोन के,बिना इंस्टाग्राम के , बिना व्हाट्सएप के ,बिना फेसबुक के ,बिना ट्विटर के ,बिना स्नैप चैट के ,बिना गूगल के आदि एक भी दिन ऐसा उपवास कभी नहीं कर सकते क्या ?
यह कोई बड़ी बात नहीं करके दिखाइए जिससे भगवान नीचे उतर के मन से आशीर्वाद दिलाएंगे और आश्चर्यजनक पुरुष का हमको ताज पहनाएँगे क्योंकि जो कमाया वो साथ जायेगा नहीं आप उसे पूरा खर्च भी नहीं कर पाओगे और कौन सी साँस आख़िरी होगी वो भी हम नहीं जानते तो फिर जीवन में समता धारलें तो अपने आप जीवन में शांति आजायेगी ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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