हम देखते है कि चारों तरफ एक ही शोर है यह क्या हो रहा है। एक ज्ञानी ने पूछने पर कहा कि ऐसा कहा जा रहा है जिनके कारण इसके एक नहीं अनेक – अनेक लक्षण हैं।
जैसे – परिवार सिकुड़ते जा रहे हैं, आपसी सम्बन्ध बिगड़ते जा रहे हैं। तन-बदन पर वस्त्र घटते जा रहे हैं। लाज-शर्म भी कम हो रही है।
पारिवारिक, सामाजिक आदि सभी मर्यादाएँ टूट रही हैं।
शास्त्र पठन-पाठन में व धर्म के प्रति , लगाव , रूचि आदि प्रायः लुप्त हो रही है। सत्य वचन कहने में दिलचस्पी किसे है ।बोलने-चालने में भी पाश्चात्यकपण द्रुत गति से हो रहा है इसके परिणामस्वरूप बच्चों में भी वे ही आचरण ढाले जा रहे हैं जिससे बड़े बुजुर्गों के पैर छूने में भी हिचकिचाहट होने लगी है।
जीवित पिता को डैड कहना तो गर्व और गौरव की बात हो गई है। मॉं जैसे पवित्र शब्द को तिलांजलि दे कर पिरामिड की मम्मी बोलने में कौनसे गर्व की बात है ? आजकल की प्रतिस्पर्धा की दौड़ में संवेदनाएं शुन्य होती जा रही हैं।
आमजन के सामने लूटपाट ,कोई सड़क दुर्घटना आदि होते हैं तो सिर्फ तमाशबीन बनकर खड़े रहते हैं या वीडियो बना रहे होते हैं पर आगे मदद के लिए कोई नहीं आता हैं । पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करते – करते हम अपनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं ।
एकाकी परिवार होने के कारण आजकल के बच्चे अपनों से ही दूर होते जा रहे हैं। मिलने की खुशी या दूर होने का दुख अब तो मानो दिखावा हो गया है ।आजकल दिखावे की इतनी होड़ लगी हुई हैं कि मोबाइल, टीवी, फ्रिज आदि स्टेटस हो गए हैं।
अधिकांश समय मोबाइल पर खर्च हो रहा हैं। सफर में भी मोबाइल में दूरी व्याप्त हो जाती है । क्योंकि हमें पता ही नहीं रहता कि हमारे पास कब, कहां, कौन बैठा और कौन गया। दिन – प्रतिदिन कई घटनाएं ऐसी होती है जिससे व्यक्ति मोबाइल में व्यस्त ही होकर मानवीय संवेदनाओं का गला घोट देता है ।
घर, बाहर ,दफ्तर आदि में अपने एंड्राइड फोन में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हम अपने घर पर बच्चे ,बुजुर्गों पर भी ध्यान नहीं दे पाते हैं।कुल मिला कर हमारी संस्कृति डांवाडोल होने लगी है। इसे बचाना जरूरी है ये सभी बिन्दु गहन चिन्तन माँगते हैं, किन्तु।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
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