कहते है की जब तक जब तक जीएँ आत्मसम्मान के साथ जीएँ।क्या बिना आत्मसम्मान के जीना भी कोई सार्थक जीने की बात
है। इससे ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई क्या बोले करे कहे मुझे क्या मानता है आदि इससे अधिक कि मुझे कौन खुद से बेहतर जान सकता है। हमारे भव-भवान्तर से अर्जित कर्म-श्रृंखला शुभ -अशुभ रूप में फल देकर निश्चित स्थिति के बाद निर्जरित होगी ही होगी ।
आवश्यकता है समभाव रखते हुए मनोबल और आत्मबल के साथ हायतोबा न मचाते हुए नए कर्मों की श्रृंखला के न वांछित करने की।हमारे विवेक से हम ये समझते हुए की हर गहन अंधेरी अमावस्या अति हैं तो पूर्णिमा की चांदनी बिखेरती रात भी आति है और रात के बाद सुबह और हर कर्म एक निश्चित समय के बाद उदय में आकर अपना फल देकर आत्मा से अलग होता ही है।
हम नए सिरे से और कर्म बन्धन से बचें ,जागरूकता बरतते हुए और बंधे हुए को समतापूर्वक सहन करें आत्मविश्वास और मनोबल को मजबूत बनाते हुए। गतिशीलता ही जीवन है ।
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। हमारे होंसले हमेशा बुलन्द रहे, चट्टान की तरह किसी भी परिस्थिति में हम कायर न बनें । जिंदगी परिस्थितियों से लड़ने का नाम है,डरने का नहीं।
कर्म के गहन बन्ध करने से डरें, बंधे हुए को भोगने में नहीं, क्योंकि हम कर्मबांधने में स्वतंत्र है, भोगने में नहीं , ये हमेशा हमारा चिंतन चलता रहे तो हम जागरूक रहते हुए कर्मबन्ध से काफी हद तक बच सकते हैं । यहीं हमारे लिए काम्य है।