जीवन की यात्रा तो अनवरत रहती है इसमें मृत्यु तो केवल एक पड़ाव हैं । जन्म से शुरू और मृत्यु पर समाप्त यह यात्रा तो तन की है न कि आत्मा की क्योंकि आत्मा तो कभी नहीं मरती हैं ।
उसकी यात्रा तो आगे निरन्तर चलती ही रहती है। तथाकथित मृत्यु के बाद तो उसका शरीर बदलता है जिसके साथ आत्मा अपनी आगे की यात्रा पर गतिमान रहती है और अपने कर्मानुसार दूसरा शरीर धारण कर लेती है।
जिस कुल में जन्म हुआ,उस परिवार से नाता जुड़ा,जिस परिवार में रहते हैं उनसे नाता होता है फिर मोह जुड़ जाता है।हम यह जानकर भी अनजान रहते हैं कि इन लोगों से रिश्ता-नाता केवल इस जन्म तक ही सीमित है।
जब शरीर मरता है उसी क्षण सारे रिश्ते नाते यँहि समाप्त हो जाते हैं। किसी की मृत्यु पर दुःख किस बात का ? आत्मा तो अजर-अमर है। नश्वर है तो शरीर है।
हर तथाकथित मृत्यु पर वह तो बदलता रहता है। जीवन में बुद्धिमान वही है जो कभी नहीं भूलता कि जन्म के साथ मृत्यु तो निश्चित ही अवश्यंभावी है पर वह कब, कहॉं, कैसे आएगी यह कोई नहीं जानता है ।
इस तथ्य को जो आत्मसात कर लेता है वह फिर चाहे दिन हो या रात कभी भी नहीं घबराता है बल्कि जब भी मृत्यु आती है तो उसका स्वागत करता है और पंडित मरण का कर आलिंगन आगे का पथ लेता है । बहुत पुण्य कमाये तब यह मनुष्य जीवन मिला है ।
भगवान ने अच्छे और बुरे की समझ केवल मनुष्य योनि को ही प्रदान की है।हर इंसान को मालुम है कि यह सही है और यह ग़लत।हमारे क्रमों के आधार पर ही हमारा अगला जन्म तय होता है।
इस तथ्य को तो सही से वही जान पाया है जिसने इस तथ्य को आत्मसात् कर लिया है कि आत्मा की यात्रा तो अन्तहीन होती है , जब तक मोक्षलीन नहीं हो जाती है ।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़ )
यह भी पढ़ें :-