मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष बाहरी दुनिया की चुनौतियों से कम और आंतरिक शांति की खोज से अधिक है। यह जीवन यात्रा हमें विभिन्न परिस्थितियों से गुजाराती है, जहां हमें कभी सामाजिक, कभी आर्थिक, और कभी व्यक्तिगत रूप से खुद को परखना पड़ता है।
इस पूरी प्रक्रिया में एक प्रमुख बात जो उभरकर सामने आती है, वह है तुलना की मानसिकता। तुलना वह आदत है, जो हमें अपनी असलियत से दूर कर देती है और हम दूसरों के जीवन को अपने से बेहतर समझने लगते हैं।
इस मानसिकता से छुटकारा पाने के लिए हमें सबसे पहले यह समझने की जरूरत है कि शांति और संतोष का असली स्रोत हमारे भीतर है, न कि बाहरी दुनिया में।
आज के आधुनिक समाज में तुलना की प्रवृत्ति इतनी गहराई से जड़ें जमा चुकी है कि हम हर क्षण दूसरों से आगे निकलने की होड़ में लगे रहते हैं। चाहे वह हमारी आर्थिक स्थिति हो, सामाजिक प्रतिष्ठा हो या फिर रिश्तों का जटिल तानाबाना, हम हर चीज में दूसरों से बेहतर बनने की कोशिश करते हैं।
यह मानसिकता न केवल हमारे मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभाव डालती है, बल्कि हमारे रिश्तों और सामाजिक जीवन को भी कमजोर करती है। एक समय आता है, जब हम अपने मूल सिद्धांतों से भटक जाते हैं और अपने वास्तविक लक्ष्यों को खो देते हैं। यह स्थिति हमें लगातार अशांत और असंतुष्ट बनाती है।
तुलना की यह प्रवृत्ति जब हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है, तो हम शांति और संतोष को अपने जीवन से दूर कर लेते हैं। जब हम किसी और के जीवन की सुविधाओं, संपत्ति या प्रतिष्ठा से अपनी तुलना करते हैं, तो हम अपने जीवन के प्रति कृतज्ञता को भूल जाते हैं।
यह मानसिकता हमें न केवल अपने वर्तमान से असंतुष्ट करती है, बल्कि भविष्य के प्रति भी एक प्रकार की उदासीनता को जन्म देती है। इसी तरह की तुलना का सामना हमें समाज के हर क्षेत्र में देखने को मिलता है, चाहे वह कार्यक्षेत्र हो, परिवार हो या फिर हमारे व्यक्तिगत रिश्ते।
आंतरिक शांति प्राप्त करने के लिए हमें सबसे पहले इस तुलना की प्रवृत्ति को त्यागना होगा। अगर हम अपने जीवन में स्थिरता और संतुलन लाना चाहते हैं, तो हमें अपने विचारों को नियंत्रित करना होगा और अपने मन को शांत करना होगा।
यही वह बिंदु है, जहां से वास्तविक शांति का मार्ग प्रारंभ होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि हम जीवन की प्रतिस्पर्धा से पूरी तरह दूर हो जाएं, बल्कि इसका अर्थ है कि हम अपने जीवन के मूल्यों और सिद्धांतों के प्रति जागरूक रहें।
जब हम अपने मन को विचारशून्य अवस्था में रखते हैं, तभी हम आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया में प्रवेश कर सकते हैं और अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्यों को समझ सकते हैं।
मन की शांति के लिए सबसे महत्वपूर्ण है आंतरिक नियंत्रण। यह तब आता है जब हम अपने विचारों को एक दिशा में केंद्रित कर पाते हैं। जब हमारा मन किसी बाहरी परिस्थिति से प्रभावित नहीं होता, तब हम अपनी आंतरिक शक्ति को पहचानते हैं।
यह वही शक्ति है, जो हमें हमारी आत्मा की गहराइयों तक ले जाती है और हमें आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर करती है। जब हम अपने विचारों को नियंत्रण में रखते हैं, तो हमारे जीवन में स्थिरता आती है। इसी स्थिरता के कारण हम अपने जीवन के हर पहलू में संतुलन स्थापित कर सकते हैं।
प्रेम और तुलना की प्रवृत्ति का गहरा संबंध है। जब तक हम अपने जीवन में प्रेम को पूरी तरह से समझ नहीं लेते, तब तक हम तुलना से मुक्त नहीं हो सकते। प्रेम का वास्तविक अर्थ तभी समझ में आता है, जब हम किसी व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति के प्रति बिना किसी अपेक्षा के स्नेह और करुणा का भाव विकसित करते हैं।
तुलना हमें हमेशा यह सोचने पर मजबूर करती है कि हम दूसरों से बेहतर हैं या नहीं, लेकिन जब हम प्रेम को समझते हैं, तब हमें यह अहसास होता है कि तुलना का कोई वास्तविक महत्व नहीं है। प्रेम और शांति एक-दूसरे के पूरक हैं। जब हमारे जीवन में प्रेम होता है, तभी हम शांति को महसूस कर पाते हैं।
यह प्रेम केवल व्यक्तिगत रिश्तों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह समाज में हर व्यक्ति के प्रति हमारी दृष्टि और दृष्टिकोण को भी प्रभावित करता है। जब हम समाज में प्रेम का संचार करते हैं, तब हम एक सकारात्मक वातावरण का निर्माण करते हैं, जहां हर व्यक्ति एक-दूसरे का सम्मान करता है।
यही वह समाज होता है, जहां शांति और संतोष का वास्तविक अनुभव होता है। इसके विपरीत, जब समाज में तुलना और प्रतिस्पर्धा की भावना प्रबल होती है, तब हम एक तनावपूर्ण और अशांत वातावरण का निर्माण करते हैं।
अगर हम इस पूरे दृष्टिकोण को अपने भारतीय संदर्भ में देखें, तो हमारे प्राचीन ग्रंथों ने भी इस बात को बहुत गहराई से समझाया है। भगवद गीता में कहा गया है कि जब मनुष्य अपने मन को नियंत्रित कर आत्म-नियंत्रण के मार्ग पर चलता है, तभी उसे शांति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
इसी प्रकार, उपनिषदों में भी आत्म-निरीक्षण और आत्म-साक्षात्कार को शांति प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग बताया गया है। तुलसीदास की रामचरितमानस में भी प्रेम और समर्पण के महत्व को गहराई से दर्शाया गया है। यह सभी शास्त्र हमें एक ही दिशा में प्रेरित करते हैं – आत्म-नियंत्रण और प्रेम की दिशा में।
आज के दौर में, जहां सोशल मीडिया और भौतिक सुख-सुविधाओं का आकर्षण हमारे जीवन पर हावी हो चुका है, वहां यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया को अपनाएं।
हमें यह समझना होगा कि बाहरी दुनिया की अपेक्षाएं और मानदंड हमें शांति और संतोष प्रदान नहीं कर सकते। शांति का वास्तविक स्रोत हमारे भीतर है। जब तक हम इस सत्य को नहीं समझते, तब तक हम जीवन में शांति प्राप्त नहीं कर सकते।
अंततः, जब हम अपनी तुलना की मानसिकता से मुक्त हो जाते हैं और प्रेम और आत्म-समर्पण का मार्ग अपनाते हैं, तभी हमें जीवन की सच्ची शांति और संतोष का अनुभव होता है। यही वह मार्ग है, जो हमें एक संतुलित और सार्थक जीवन की ओर ले जाता है।
समाज में प्रेम और शांति का प्रसार करना हमारी सामूहिक जिम्मेदारी है, और इसके लिए हमें सबसे पहले अपने भीतर शांति की स्थापना करनी होगी। यही वह आदर्श मार्ग है, जो हमारे जीवन को सुंदर और सार्थक बना सकता है। जब तक हम इस दिशा में प्रयासरत नहीं होते, तब तक हम अपने जीवन के असली अर्थ और उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकते।
अवनीश कुमार गुप्ता ‘निर्द्वंद’
प्रयागराज
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