सुख और संतोष का मूल आकांक्षाओं की उपेक्षा है क्योंकि आकाश के समान अनंत इच्छाएं, ख्वाहिशें, अरमान कभी भी पूरे नही होते हैं । हम व्रत,संकल्प साधना एवं संयम आदि के द्वारा व सीमाकरण आदि के विवेक से इनका अल्पीकरण करना सीखे ।
हम अपने जीवन की चादर में अहम की सीलन, व्यवहार की रजाई में ईर्ष्या की गंध को संतोष के बसंती ऋतु में पसरी धूप में सुखा दे । वह इससे हमारे अपने जीवन की हर आकांक्षा की पूर्ति हो जायेगी ।
बीत जाती है यूँ ही पूरी जिन्दगी, जोङ-घटाव के अन्तहीन ख्याली पुलाव में।उलझते ही जाते है सच्चाई जानते हुए भी,खुद के बुने हुए मक्कङ जाल मे। मोह-माया के अदृश्य पाश मे बंधे हर इन्सान की कमोबेश यही कहानी है ।
भरोसा पल का भी नहीं, फिर भी लगे हुए हैं सात पीढी की सलामती के जंजाल मे। इस जगत में जो कुछ भी है या संसार की सभी चीजें अस्थायी हैं उसमें हमारा कुछ भी नहीं है । इस संसार में आदमी सबसे मतिमान है , उसको मानसिक शक्ति मति ही दे सकती है ।
इसका मूल बीज सजगता, जागरूकता है । अत: सजगता ही मुख्य रूप से शक्तिदाता है पर विडंबना है कोई इस ओर कभी ध्यान ही नहीं देते हैं । वह सभी और-और के सांसारिक झंझटों में ही उलझे रहते हैं ।
हमें इन्हीं सब कष्टों से उबरने के लिए अपनी शक्ति को पहचानना जरूरी है । वह उसके लिए सजगता को जानना आवश्यक है । हम सजगता से हमारे द्वारा लगातार हो रहे कर्मों का मन ही मन हर पल, हर क्षण निरीक्षण करते रहें ।
हमसे यदि भूल किसी भी कारण हो जाए तो हम उसे हल्का कर उसका प्रायश्चित भी उसी क्षण ले । हम कभी न रखें यह उसूल कि आज नहीं कल आज की भूल सुधार लेंगे। हमारे में से कोई नहीं जानता कि कल का समय यह काल देगा कि नहीं इसलिए हम मानव! अभी की भूल को अभी ही प्रायश्चित कर सँभाल ले यही हमारे लिए उचित है ।
हमको हमारे जीवन में यह ध्यान रहे कि कर्मों के खेल में ना बादशाह चलता है , ना इक्का चलता है। यहॉं तो बस कर्मों का सिक्का चलता है। इदम न मम एक संस्कृत श्लोक का अंश है जिसका अर्थ है कि यह मेरा नहीं है ।
हमारे जीवन में सदैव जिज्ञासा रहने से ज्ञान को बढाने की इच्छा बनी रह्ती है । वह हमारे द्वारा किसी भी विषय को सही से समझने की उत्सुकता पैदा होती है और आगे से आगे जानने की सजगता रहती है । ज्ञान असीम और अनंत है ।
( क्रमशः आगे)
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)
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