कहते है शब्दों की तुलना में उसमें निहित बात की भावना की क़ीमत ज्यादा है । कभी – कभी मैंने अपने जीवन में तथा अन्य जगह देखा है की शब्द बोले नहीं जाते लेकिन शब्दों के पीछे के भाव एक दो शब्द में ही आ जाते है ।
कुछ समय पूर्व सन्तों के द्वारा कहा गया की एक की भावना बदलती है तो दूसरे की भावना भी बदल जाती है क्योंकि हम जैसा देंगे वैसा ही किसी से प्राप्त करेंगे । दुःखी होना या न होना हमारे विवेक पर निर्भर करता है, परिस्थितियां, घटनाएं तो घटती ही रहती है और घटेगी ही।
हमारे भाव उनके साथ आसक्त और अनासक्त रूप में जुड़ते है,तब हम दुःखी या न दुःखी होते है। हम जिसका संयोग चाहते है,वो होने से खुश और उसके वियोग से दुःखी होते है।
हम सम भाव रखें, घटनाओं के साथ लगाव (आसक्त) न रखे तो हम घटनाओं से प्रभावित नहीं होते, खुश होंगे एकसे, तो दूसरे से दुखी होना स्वाभाविक क्रिया है और हम विवेकपूर्वक कर्म आने के दरवाजे बंद कर दे तो हम सहजता से दुखके दरवाजे भीबंद कर पाएंगे।
जब तकजीवन है समन्वय के साथ जीना सीख जाएं हम तो अनेकांत का मार्ग अपनाकर दुख से दुखी नहीं होंगे, उसमें भी ये हमारे किये कर्मों का ही भुगतान होकर छुटकारा मिला, यहीं चिंतन होगा हमारा, तब दुखी नहीं होंगे हम।
सकारात्मक विचारों में दुखी होने के लिए अवकाश नहीं । हमें परोपकार , आध्यमिकता और सत्कर्मों में अपना ध्येय रखना चाहिए। संत तुलसीदास जी ने भी मानवजीवन की सार्थकता परोपकार रुपी श्रेष्ठ कर्म में ही देखी थी।
जिस व्यक्ति के कार्य सामाजिक संवेदना, मानवीय भावों, त्याग व मूल्यों से आप्लावित होते हैं केवल उसी व्यक्ति का जीवन न केवल समाज, राष्ट्र युग , संपूर्ण विश्व के लिए वरदान सिद्ध होता है इसलिए जीवन के सार्थकता श्रेष्ठ कर्म में ही निहित हैं ।
हम यह भी ध्यान में रखें जीवन में की कुछ लोग भावना को ज़ाहिर नहीं करते हैं लेकिन वे परवाह बहुत करते हैं। ऐसे वे सबसे ज्यादा अपने होते हैं।
प्रदीप छाजेड़
( बोरावड़)